कहे कबीर : डॉ. सुभाष खंडेलवाल

कहे कबीर

कहे कबीर जमाना खोटा, हगे गुदा और माँजे लौटा।’ नई पीढ़ी नहीं जानती, लेकिन पुरानी पीढ़ी जानती है कि पहले दिशा-पाखाना (लैट्रिन) जाने पर धोने के लिए पानी भरा लोटा साथ ले कर जाते थे। धोने के बाद हाथ कोहनी तक पीली मिट्टी से धोते थे और लोटे को न मालूम कितना रगड़-रगड़ कर माँजते, चमकाते थे। हमारी दशा और दिशा आज भी लौटा माँजने की है।

मित्रों के साथ चाय के ठीये पर बैठे थे। एक ब्राह्मण मित्र ने कहा, भैया,  कुत्ता कार के नीचे आ कर मर गया है। कुत्ता दोष लग गया है। पंडित जी से पूछा था। उन्होंने कहा है कि उज्जैन में चक्रतीर्थ पर जा कर प्रायश्चित हेतु दोष निवारण करना पड़ेगा। मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा कि ये पेट में जो बरसों से चिकन-मटन भर रहे हो, उसके दोष निवारण का क्या है? वे सोच में पड़ गए और बोले, आप कभी-कभी मच्छर आ जाए तो मार देते हैं, मैं नहीं मार सकता। पत्नी से कहता हूँ कि तू मार दे। एक और मित्र हैं, जैनी हैं। पर्युषण चल रहे हैं। दोस्तों की पार्टी में गए। खाने में वेज-नानवेज दोनों थे। कॉर्न बुलवाए। वे प्याज के थे। उन्होंने कहा कि पर्युषण में प्याज नहीं खाता। मुझे बगैर प्याज के बना कर ला दो। नॉनवेज की नॉन-स्टिक कड़ाही में उसी चम्मच से बन कर कॉर्न आ गए। उन्होंने आराम से खा भी लिए। एक मुस्लिम मित्र आए। उनका नॉनवेज खाने का होटल है। बोले, मंगलवार हो या नवरात्रि, बिक्री 20 प्रतिशत भी नहीं होती है। चौमासा है। घरवाली घर में प्याज-लहसुन लाने नहीं दे रही है। पति सब कुछ बाहर खा-पी कर आ रहे हैं। एक जैन हैं। वे चिकन खाते हैं, बगैर लहसुन-प्याज का।  पूछा तो बोले, पिताजी ने लहसुन-प्याज छुड़वा दिया था। हमारे देश में जाति, धर्म के आधार पर खानपान को ले कर लोगों के दिमाग में अलग-अलग तरह की मान्यताएँ हैं। उनके सद्प्रभाव गायब हैं और दुष्प्रभाव सामने हैं।
अखबार में खबर छपी है, प्रसिद्ध खजराना गणेश मंदिर के पीछे गंदे नाले के पास प्रदूषित लड्डू जब्त किए। गणपति उत्सव मना रहे हैं। गणेश जी की मूर्ति बड़ी होती जा रही है और लड्डुओं में ही नहीं, जिन्दगी में भी मिलावट बढ़ती जा रही है। गाय के लिए धार्मिक उन्माद है और गाय की हालत सब से ज्यादा खराब है। गाय वाला ही उस पर हिंसा, उसका शोषण सब से पहले करता है। सजा न मालूम किनको-किनको  जाने-अनजाने में भुगतनी पड़ती है। कहावत है कि कुम्हार कुम्हारनी को कुछ कह नहीं पाता और बेचारी गधेड़नी के कान खींचता है। सभी धर्मों के जुलूस सड़कों पर निकलते हैं। जुलूस में गाड़ियों के साथ हाथी, घोड़े भी होते हैं। पहली सदी से ले कर इक्कीसवीं सदी तक का नजारा एक साथ देखने को मिलता है। जुलूस के मार्गों पर गोबर, पेशाब, फूल, पानी और रामरज कीचड़ बन कर गंदगी और प्रदूषण फैलाते हैं। इस बार पर्युषण पर इंदौर में श्वेताम्बर जैनियों ने भगवान की सवारी निकाली। 32 घोड़ों की जगह वे स्वयं रथ खींच रहे थे। दिगंबर जैनियों  ने अहिंसा रैली निकाली। दो वर्ष पूर्व इनके जुलूस में आधा घंटा फँस कर 38 वर्ष का एक नौजवान हार्ट अटैक आने पर अस्पताल नहीं पहुँच सका था और अस्पताल पहुँचते ही मर गया। इस बार पुन: घंटों ट्रैफिक जाम होता रहा। जनता परेशान होती रही। धर्म रास्ता दिखाने के लिए है, रास्ता रोकता रहा। धर्म का मर्म समझते तो यह देख पाते कि जुलूस कितनी अहिंसा करता है या हिंसा करता है।

केले कभी गोदाम में भट्टी बना कर गरम कर पकाए जाते थे। आज कार्बन के जहरीले पानी में तुरंत पकाए जाते हैं। इस तरह एक-एक चीज बताओ  तो पन्ने कम पड़ जाएँगे। बस इतना समझ  लीजिए कि खेतों में मिट्टी के अंदर तक कीटनाशक के नाम पर जहरीले रसायन घुस चुके हैं। आज हम कौन-सा खाद्य पदार्थ खाएँ जिससे स्वास्थ्य सुरक्षित रह सके, इसी पर प्रश्नचिह्न हैं। सब्जी, फल, अनाज, दूध, तेल, घी, मक्खन, पनीर, मिठाई, नमकीन सब में गड़बड़ है। हवा जहरीली है। पानी प्रदूषित है। बरसात के बाद डॉक्टरों के यहाँ लम्बी कतारें हैं। हर घर में बीमार हैं। बुखार, मलेरिया, डेंगू, टायफायड, चिकनगुनिया, हैजा, टीबी तो क्या, किडनी, लीवर, हार्ट अटैक भी सामान्य बीमारी बन चुके हैं। कैंसर भी चारों ओर फैल रहा है। इन सब के लिए तकनीकी, दवा  विदेशों  से आ रही है। शराब और शराबी बढ़ते जा रहे हैं, गरीब शराबी की बीवी बच्चों के दूध-रोटी के लिए रो रही है और अमीर शराबी की बीवी अकेली सो रही है। शुगर पेशेंट शुगर खा रहे हैं, साथ में शुगर की गोली खा रहे हैं।

हम दोस्त लोग सपरिवार अमेरिका घूमने के लिए गए। हम 15 जोड़े थे, लेकिन हमारा खाना चार-पाँच तरह का था। पहला खाना बगैर लहसुन-प्याज का, दूसरा जैनी खाना जिसमें आलू आदि नहीं था। तीसरा एगेरियन मतलब अंडा होगा। चौथा नॉनवेज मतलब फिश, चिकन, मटन। पाँचवाँ विदेशी मतलब सभी तरह के नॉनवेज, केकड़े, साँप आदि। यूरोप-अमेरिका वाले एक ही शब्द जानते हैं, समझते हैं, नॉनवेज। उन्हें खाने के इतने प्रकार, इतने भेद नहीं मालूम हैं, लेकिन यह कड़वी हकीकत है कि उनका नॉनवेज शुद्ध है, और हमारा वेज अशुद्ध है। हमने सदियों से खाने में तो वेज-नॉनवेज, शुद्ध-अशुद्ध का भेद किया ही है, दलित-निचली जातियों के लोगों को  एक अदृश्य भारत बना कर, अपने से दूर रख कर इनके साथ जन्म से ले कर मरने तक भेदभाव भी किया है। उनका कुआँ-पानी ही नहीं, उनका मरघट भी अलग रखा है, जो आज भी गाँवों  की असलियत है, जिसे देख कर भी हम अनजान बनते हैं और कुतर्क करते हैं।  उसकी यह सजा मिली  है कि आज देश भर में गटर का मल-युक्त पानी पीने को मिलता है। कुएँ खत्म हो चुके हैं, नदियाँ नाला बन चुकी हैं। नल से पानी आता है। उसमें गटर या ड्रेनेज का मलयुक्त पानी मिला होता है। हम मैला उठाने वाले से नफरत करते रहे। आज मैला ही पानी में घुस कर हमसे प्यार कर रहा है।

नल से पानी आता है। उसमें गटर या ड्रेनेज का पानी मिला होता है। हम मैला उठाने वाले से नफरत करते रहे। आज मैला ही पानी में घुस कर हमसे प्यार कर रहा है।

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