युद्ध के लिए हाँ और नही के बीच : वितर्क : राजकिशोर

राजकिशोर
युद्ध के लिए हाँ और नही के बीच


"जिस तरह गंगा को गंगोत्री से ही साफ किया जा सकता है – बनारस से नहीं, उसी तरह कश्मीर को सुलझाने के लिए हमें 1948 तक लौटना पड़ सकता है। वरना कोई भी युद्ध मोदी को सुर्खरू बनाने का नुस्खा भर साबित होगा।"

जब लोग प्रधानमंत्री को उनके छप्पन इंच के सीने की याद दिलाते हैं या विदेश मंत्री को बतालाते हैं कि उन्होंने एक सिर के बदले कितने सिर लाने की बात कही थी, तो उनकी माँग यह नहीं होती है कि भारत तुरत पाकिस्तान के साथ युद्ध छेड़ दे। भारत की जनता इतनी जल्दबाज नहीं है, न ही वह युद्ध-पिपासु है। वह सिर्फ यह जानना चाहती है कि फिदायीन के माध्यम से भारत पर बार-बार हमला करने वाले पाकिस्तान पर हमारी सरकार कार्रवाई क्यों नहीं करती। देश के भीतर जब आदिवासी या दलित प्रदर्शन करते हैं या किसान-मजदूर अपने हकों के लिए लड़ते हैं, तब पुलिस को लाठी या गोली चलाने में देर नहीं लगती। श्रीनगर में जब कश्मीरी बूढ़े-जवान-बच्चे कोई प्रतिवाद जुलूस निकालते हैं, तब आशंका होती है कि सीआरपीएफ या फौज के छर्रे कभी भी छूट सकते हैं। लेकिन जब भारत के सैनिक ठिकाने या फौजी कैंप पर आतंकी हमला होता है, तब सरकार सबूत जमा करने लगती है कि इनके पीछे किसका हाथ हो सकता है।

यह सही है कि हमें पाकिस्तान जैसा युद्धक देश नहीं बनना है, पर ऐसा हिंदुस्तान भी नहीं बनना है जिसकी सीमाओं को लाँघ कर कोई भी चला आए और हमारे क्षेत्र में वारदात करके चला जाए। हमारी सेना ने उन चार आतंकवादियों को दस मिनट में ही ढेर कर दिया था जिन्होंने उड़ी के फौजी कैंप पर आक्रमण किया था। लेकिन क्या इतना प्रत्याक्रमण पर्याप्त है? चूँकि यह इस तरह की पहली घटना नहीं थी, इसलिए सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह  रोज-रोज ऐसी घटनाएँ नहीं होने देगी और कोई दीर्घकालीन हल निकालेगी। इतनी बड़ी सेना क्यों है? जो जो हथियार हम जमा कर रहे हैं और महँगे दामों पर खरीद रहे हैं, वे किस दिन के लिए हैं? या तो भारतीय फौज  को भंग कर दीजिए और मिसायल चलाने के बजाय वीणा बजाइए या धमाके के साथ बताइए कि पाकिस्तान जैसा पिद्दी देश हमें लगातार जोखिम में नहीं रख सकता।

कश्मीर निःसंदेह एक राजनीतिक समस्या है, लेकिन पाकिस्तान सैनिक समस्या है। भारत-पाकिस्तान का मामला इतना उलझा हुआ है और दोनों देशों के साथ इतने अंतरराष्ट्रीय पेच हैं कि हमें बाकी विश्व से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। विश्व शक्तियों की दिलचस्पी भारत-पाकिस्तान विवाद सुलझाने या पाकिस्तान के बरअक्स भारत को न्याय दिलाने में न है और न कभी होगी। वे दोनों हाथ लड्डू चाहते हैं। लेकिन यह मानने का कोई आधार नहीं  है कि अमेरिका या यूरोपीय संघ के कहने पर पाकिस्तान अपने आतंकवादी दस्तूरों का त्याग कर देगा। पाकिस्तान का जन्म ही अविभाजित भारत में आतंकवाद से हुआ था। तब डाइरेक्ट एक्शन था, अब इनडाइरेक्ट एक्शन है। आतंकवाद का स्वभाव जोंक की तरह होता है। आतंकवाद की गिरफ्त में पाकिस्तानी खून भी बह रहा है। लेकिन पाकिस्तान के लिए आतंकवाद का समर्थन उसके राजस्व का भी एक बड़ा स्रोत है - उन देशों से जो धर्म के आधार पर उसके साथ हैं और उन देशों से भी, जो आतंकवाद के खिलाफ एक नकली विश्व युद्ध छेड़े हुए हैं। अभी तक हम एक ऐसी दुनिया नहीं बना पाए हैं, जिसमें आतंकवाद सार्विक घृणा का विषय हो।

युद्ध का निर्णय एक कठिन निर्णय है। भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों के पास परमाणु बम नहीं होता, तब भी। पाकिस्तानी भले हमें भाई-बहन न समझते हों, पर हम उन्हें अपना भाई-बहन मानते हैं। दोनों देशों में मुसलमानों की बड़ी आबादी है और भारत-पाकिस्तान तनाव बढ़ता है, तो हमारे देश में सांप्रदायिक स्थिति भी बिगड़ती है। लेकिन अस्सी के दशक से कश्मीर में जो अभूतपूर्व स्थिति बनी हुई है और आतंकवादी घटनाओं का जो सिलसिला जारी है, उसका भी एक जबरदस्त तनाव है, जिसे भारत के लोग झेल रहे हैं और अब ज्यादा दिनों तक नहीं झेल सकते। जिन्हें बातचीत की प्रक्रिया में असीम आस्था है, उनसे मेरी बिनती है कि वे किसी गुर्राते हुए भेड़िए से बातचीत शुरू करके दिखा दें। समस्याएँ बातचीत से ही सुलझती हैं, पर बातचीत की भी एक सीमा होती है। अगर हमारे पास नाखून और दाँत नहीं हैं, तो बातचीत का रास्ता क्रमिक आत्महत्या का पर्याय हो जाता है। हमारी समस्या यह है कि हमें जो सख्ती पाकिस्तान के साथ बरतनी चाहिए, वह हम कश्मीरियों के साथ दिखाते हैं।

पाकिस्तान को शांत करना हमारा राष्ट्र धर्म है – वह चाहे जैसे हो। लेकिन कश्मीर को शांत किए बिना हम इस दिशा में कुछ भी नहीं कर सकते। पाकिस्तान कश्मीर  में तभी तक सफल हो सकता है जब तक कश्मीर अशांत है। अगर कोई इस गलतफहमी में है कि कश्मीर की अशांति पाकिस्तान की वजह से है, तो न केवल उसकी आँखें बंद हैं, बल्कि कान भी सुन्न हैं। जिस दिन कश्मीर को हम अपना बनाने में सफल हो जाएँगे, उस दिन पाकिस्तान उलटे पाँव भाग चलेगा। उसे कश्मीर में खरीददार नहीं मिलेंगे।

दुर्भाग्य से, केंद्र में एक ऐसे दल का बहुमत है जो शुरू से ही भारत और कश्मीर को जोड़ने वाली धारा 370 को खत्म करने की माँग करता आया है। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यह दल कश्मीर सरकार में भी साझीदार है। उसे कैसे समझाया जा सकता है कि भारत और कश्मीर को जोड़ने वाला एक और औजार वह विलय पत्र है जिसके आधार पर  कश्मीर भारत का अंग बना था, लेकिन अन्य रियासतों की तरह नहीं, बल्कि विशेष प्रावधानों के साथ। उस विलय पत्र का एक प्रावधान यह था कि स्थिति सामान्य होने पर उस संधि पर कश्मीर के लोगों की रायशुमारी की जाएगी। ये गड़े मुरदे नहीं हैं। जिस तरह गंगा को गंगोत्री से ही साफ किया जा सकता है – बनारस से नहीं, उसी तरह कश्मीर को सुलझाने के लिए हमें 1948 तक लौटना पड़ सकता है। वरना कोई भी युद्ध मोदी को सुर्खरू बनाने का नुस्खा भर साबित होगा।
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