वैष्णा रॉय |
‘दलित अस्पृश्य हैं, उनके वोट नहीं’ ::: गुजरात के दलित नेता मार्टिन मैक्वान से बातचीत
दलितों के सामाजिक और आर्थिक शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए मार्टिन मैक्वान ने 1988 में गुजरात के अहमदाबाद में नवसृजन न्यास की स्थापना की थी। वे दलित मानवाधिकारों के राष्ट्रीय अभियान के संयोजक रहे हैं। 2005 में ह्यूमन राइट्स वाच ने उन्हें पाँच उत्कृष्ट मानवाधिकार रक्षकों में नामोल्लेखित किया। द हिंदू के लिए उनसे यह बातचीत वैष्णा राय ने की।
यहां पहली बार दलितों ने विरोध के इस रूप को अख्तियार किया है। प्रतिरोधस्वरूप ऊंची जातियों से यह कहना कि अगर गाय आप की माता हैं, तो उसकी मृत देह का निपटान आप ही कीजिए! मुझे यह बहुत प्रभावशाली लगता है।
गुजरात में 1982 के आरक्षण विरोधी दंगों के दौरान सफाई वालों ने शहरों की बदबू मारने की हद तक गलियों को साफ करना बंद कर हिंसा का प्रतिरोध किया था। विभाजन के समय सफाईकर्मियों के भारत जाने और मुसलमानों के साफ करने के लिए गलियों में अपशिष्ट छोड़ जाने के विचार से पाकिस्तान इतना आक्रांत हो गया था कि उन्हें वहीं पीछे रह जाने को तैयार करने के लिए राष्ट्र रक्षकों का विशेष दर्जा दिया गया था। ऊना घटना की क्रूरता ने दलितों को बंद गली के मुहाने पर पर ला पटका है, जहां पुलिस (हमलावरों की) पिछलग्गू थी और राज्य ने भी अफसरशाही की लक्ष्मण रेखा तक ही अपने को सीमित रखा। अत: अब दलितों ने तय कर लिया है कि उन्हें इन ऊँची जातियों का और उनके धर्म में उनकी आस्था का इम्तहान लेना है कि ‘क्या गाय आपके लिए पवित्र है और क्या वह आपकी माँ हैॽ तो आप ही उसकी देखरेख करें!’ इसका असर तुरंत दिखाई दिया है। दलित मृत पशुओं की लाशों का निपटान करने की गैर-दलितों की प्रार्थनाओं को विनम्रता से ठुकरा रहे हैं और अब तक तो सड़ते हुए मांस की बदबू हवा में फैल चुकी है। गुजरात के मुख्य सचिव ने पहली बार स्वीकार किया है कि गो रक्षक और कुछ नहीं, बस गुंडे हैं। सरकार को अब अपने ही शब्दों पर खरा उतरने के लिए कदम उठाना है।
मार्टिन मैक्वान |
आज (दलितों में) विशाल परिमाण में गुस्सा भरा है। लेकिन दलितों के खिलाफ क्रूरता कोई नई बात नहीं है। वास्तविक चिनगारी आखिर इस बार क्या थीॽ
दलितों के जीवन में क्रूरता रोजमर्रा का मुद्दा नहीं है, किंतु भेदभाव तो रोजाना की बात है। शिक्षित नई पीढ़ी आज ज्यादा जागरूक है और अंबेडकर और फुले से प्रभावित है। प्रिंट मीडिया का क्षेत्रीयकरण क्रूरता की सूचना को दूसरे क्षेत्रों तक पहुंचने से रोका करता है, किंतु सोशल मीडिया पक्षपात से रहित होने के साथ-साथ प्रिंट मीडिया से कहीं ज्यादा ताकतवर साबित हुआ है। ऊना घटना के दृश्यों ने, जैसे दलित युवाओं की नग्न पीठों पर क्रूरता से बरसते डंडे, उनमें से एक का मात्र 17 साल का होना, उपहास उड़ाते पुलिसवालों की उपस्थिति और रीढ़विहीन नागरिक समाज – इन सब ने मिल कर दलित युवाओं में इस बात का आभ्यंतरीकरण करवा दिया कि जैसे उनकी अपनी ही देहों पर डंडे लगाए जा रहे हैं और उनका ही उपहास उड़ाया जा रहा हो। विभिन्न मुद्दों को ले कर असंतोष लंबे समय से घनीभूत होता जा रहा था, जैसे निजी शिक्षा तक दुर्लभ पहुंच, बेरोजगारी, कार्यस्थलों पर भेदभाव आदि। और, पटेल आंदोलन तथा कश्मीर हिंसा के बिंब इन युवाओं के जेहन में विद्यमान थे।
क्या दलित इस अवसर का इस्तेमाल अपने गुस्से को एक अर्थपूर्ण दिशा देने और उसकी राष्ट्रव्यापी व्याप्ति के लिए कर सकते हैं ॽ
सन 2000 में नस्लवाद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक संगोष्ठी के दौरान दलितों को एक राष्ट्रीय ताकत के रूप में एकजुट होने का अद्वितीय मौका मिला था, क्योंकि उस समय एक रणनीतिगत आंदोलन ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि जाति के मुद्दे को इस संगोष्ठी के कार्यक्रम में स्थान मिले। किंतु भारत सरकार ने जाति पर होने वाले उस विमर्श को रुकवाने के लिए कोई कसर न छोड़ी। इसके लिए दिए गए हमारी सरकार के तर्क थे कि ‘भारत में किसी भी तरह की अस्पृश्यता अब विद्यमान नहीं हैं।’ और ‘जाति भारत का अंदरूनी मसला है।’ भारत का यह कदम नेपाल के विपरीत था, जिसने जाति को मानवाधिकारों के एक उल्लंघन के रूप में स्वीकारा था। यह इसके बावजूद था कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग दलितों का समर्थन करता है। इस बार प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने विभिन्न राज्यों के दलितों को एक साथ लाने में अत्यधिक मदद की। दूसरे समुदायों ने भी दलितों के साथ सहानुभति दिखलाई है।
दलित संगठन राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रतिरोध का समर्थन कैसे कर सकते हैं ॽ
इस बार के विरोध में संगठनगत नेतृत्व की अपेक्षा समुदायगत नेतृत्व ज्यादा है। संगठन तो बाद में इसके साथ जुड़े हैं। उनकी भूमिका विरोध को एक अर्थपूर्ण दिशा में धारागत रूप देना है। वे इसमें शोध और तकनीकी विशेषज्ञता के साथ आ जुड़े हैं। उदाहरण के लिए जैसे मुकदमों में कानूनी सहयोग देना और (आंदोलन) को प्रचारित-प्रसारित करना। सभी राज्यों के लोगों के बीच ये संगठन संयोजन सूत्र बने हैं।
बदलाव की मांग के लिए जमीनी स्तर का जन विरोध सब से श्रेष्ठ मालूम पड़ता है। वे कौन-सी विघ्न-बाधाएं हैं जो दलितों को संगठित कदम उठाने से रोकती हैंॽ
अपने अनुभव से मैं कहूंगा कि किसी भी सामाजिक आंदोलन में, विशेषत: जो जाति को विघटित करने वाला है, उत्पीड़क विचारधारा के आभ्यंतरीकरण से पैदा होने वाला भय ही प्रधान अवरोध होता है। इसके निवारणार्थ सामुदायिक संघटन के लिए अति दीर्घकालीन काम की अपेक्षा रहती है। ऐसा नहीं है कि जो लोग उत्पीड़क हैं, वे कानून न जानते हों। तथ्य यह है कि धर्म-अनुमोदित जाति संविधान से ज्यादा ताकतवर है और राज्य भी संविधान की जगह जाति का समर्थन करता पाया जाता है।
मैं दूसरी बड़ी बाधा के रूप में सदन में दलित प्रतिनिधियों के प्रभावहीन राजनीतिक नेतृत्व को देखता हूं। दलितों का प्रभावी राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अंबेडकर पृथक निर्वाचन क्षेत्र चाहते थे। लेकिन गांधी जी के आमरण अनशन के कारण उन्हें राजनीतिक आरक्षण स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा था। आज संसद में अनुसूचित जातियों के 84 सदस्य हैं, लेकिन उन्होंने आज तक संसद को ठप नहीं किया, चाहे मैला ढोने का मुद्दा हो या चाहे निरंकुश क्रूरता का मामला हो। कारण, उनकी प्राथमिक आस्था अपने-अपने राजनीतिक दल के प्रति होती है। किंतु चाहे दलितों के साथ अछूतों सरीखा व्यवहार किया जा सकता हो, वे 16.5 प्रतिशत मत रखते हैं और ये मत अस्पृश्य नहीं हैं। यही कारण है कि दलित अपनी स्थिति के प्रति ध्यानाकर्षण में समर्थ रहे हैं।
आंद्रे बेते ने कहा था कि कुछ लोगों (दलितों को) सभी गंदे कार्य करने पड़े थे ताकि दूसरे लोग कर्मकांडीय पवित्रता की अपनी अवधारणा को बनाए रख सकें। क्या होता अगर पूरे भारत के दलित मानव अपशिष्ट को हटाने से इंकार कर देते या नालियों को साफ करने से? सामाजिक पदानुक्रम की जिस जड़ता को हम जानते हैं, वह इससे हिल जाती।
गरीबी रेखा से नीचे वाले जन साधारण में सबसे गरीब दलित ही हैं। आजादी पूर्व के कानून, जैसे कि पंजाब के कानून, उन्हें संपत्ति खरीदने से प्रतिबंधित करनेवाले थे क्योंकि मनुस्मृति के अनुसार उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे वर्चस्वशाली जातियों की सेवा करें। इसने भी दलितों को भूमिहीन बनाया। भूमि के पुनर्वितरण का लक्ष्य रखने वाले स्वातंत्र्योत्तर भू सुधार गुजरात में पटेलों के पक्ष में सफल रहे, किंतु दलितों और आदिवासियों के मामले में बुरी तरह से असफल रहे। आरक्षण को गलत ढंग से लागू किया गया है। दलितों के लिए आरक्षित हजारों नौकरियों को भरा ही नहीं गया है। इसीलिए बहुत सारे दलित जीवन निर्वाह के लिए जाति आधारित पेशों को जारी रखते हैं। यह जातीय संरचना में कैद रखने का दुश्चक्र है। दीर्घकालीन प्रतिवाद के लिए आर्थिक रूप से स्थायित्व का होना एक पूर्व शर्त है। मोलभाव करने के लिए अब मंच तैयार हो गया है।
इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री पूर्णत: चुप्पी साधे हुए हैं। उनसे और शासक दल से आपकी क्या उम्मीदें हैं?
वे ही मुख्य सूत्रधार हैं जो अपने पूर्ववर्तियों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए जाति और धर्म के आधार पर देश को विभाजित करते हुए धार्मिक पहचान आधारित बहुमत की राजनैतिक अवधारणा को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। लेकिन भारत के संदर्भ में यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि धर्म और जाति, एक ही सिक्के के दो अविच्छेद्य पक्ष हैं। ईसाइयत, इस्लाम और सिक्ख धर्म में जातीय विभाजन का यही कारण है, जबकि उनके सिद्धांत जाति का समर्थन नहीं करते और उनकी उत्पत्ति किसी समय जाति विरोधी आंदोलनों से हुई थी। प्रधानमंत्री चुनावों को जीतने में सफल रहे हैं लेकिन वे सामाजिक बदलाव की प्रतिमा नहीं रहे हैं, चाहे वे अन्य पिछड़ा वर्ग के एक सदस्य के रूप में पहचान का दावा करते हो। चुप रहने के सिवा उनके पास और कोई विकल्प है ही नहीं।
सुधारों के रास्ते पर एहतियातन और क्या किया जा सकता है?
भू-सुधारों का क्रियान्वयन, आरक्षण के तहत नौकरी की रिक्तियों का भरा जाना, निजी क्षेत्र में आरक्षण का आगाज, जिस वायदे को निभाने में यूपीए इरादतन असफल रही। और दलित और आदिवासियों की उच्च शिक्षा हेतु एक कोष की स्थापना। इस अशांति को नियंत्रित करने के ये महत्वपूर्ण कदम हैं।
दलित संदर्भ में ‘विकास के गुजरात नमूने’ पर हमें कैसे विचार करना चाहिए?
असमानता और विकास के सहअस्तित्व के तमाशे हेतु गुजरात भारत के लिए एक नमूना रहा है।
(अनुवाद : डॉ. प्रमोद मीणा)
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