कश्मीर की पीड़ा : आशुतोष कुमार

आशुतोष कुमार
कश्मीर का शरीर ही नहीं, मन भी घायल है। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में उसने भारत के साथ जुड़ने का निर्णय इसलिए किया था कि यह गांधी और नेहरू का देश था और भारत से उसे न्याय और लोकतांत्रिक व्यवहार की आशा थी। लेकिन विलय के बाद  कश्मीर की जनता ने जिस किसी पर भरोसा किया, उसी ने उसके साथ  विश्वासघात  किया - जवाहरलाल  नेहरू  ने, शेख अब्दुल्ला  ने, इंदिरा गांधी  ने, फारूक अब्दुल्ला ने, राजीव  गांधी  ने। आज वह गुस्से में है – और दिशाहीन भी। लेखक का कहना है कि फौज के सहारे उसे अनंत काल तक भारत के साथ रख पाना कठिन होगा, लेकिन संवाद की शुरुआत के लिए जरूरी है कि कश्मीर की जनता को भी वे लोकतांत्रिक अधिकार मिलें जो देश के बाकी हिस्सों की जनता को मिले हुए हैं। लोकतंत्र की बहाली ही कश्मीर की पीड़ा को कोई रचनात्मक रूप दे सकती है।

कश्मीर एक नए मोड़ पर
कश्मीर में हालात बेहद संगीन हैं। बीते नौ अगस्त को खुद गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने राज्य  सभा में यह बयान दिया था। दस अगस्त को राज्य सभा में कश्मीर की स्थिति पर चर्चा हुई। बारह अगस्त को सर्वदलीय बैठक भी हो चुकी है। पन्द्रह अगस्त को लाल किले से भाषण देते हुए प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान, गिलगिट-बाल्टिस्तान और पाक–अधिकृत कश्मीर का जिक्र किया। भारतीय कश्मीर की चर्चा नहीं  की। बलूचिस्तान आदि के जिक्र को अहम नीतिगत बदलाव के रूप में देखा जा रहा है।

भारत ऐसी टिप्पणियों से बचता रहा है। 16 जुलाई 2009 को शर्म-अलशेख से जारी भारत और पाकिस्तान के संयुक्त बयान में पहली  बार बलूचिस्तान का जिक्र आया था। तब बीजेपी के नेताओं ने इसे  भारत के लिए शर्मनाक दिन बताया था। कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के बयानों को भारत अपने ‘आंतरिक मामले में हस्तक्षेप’ करार देता है। इस तरह के हस्तक्षेप को वैधता न मिले, इसीलिए स्वयं बलूचिस्तान और  तिब्बत जैसे मुद्दों पर बोलने से बचता रहा है। पहली बार उसने ऐसा खतरा उठाना तय किया है।

खतरा यह है कि अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा कश्मीर में मानवाधिकारों का प्रश्न उठाया जाता है तो भारत के लिए अब इसे  अपने आंतरिक मामले में हस्तक्षेप बता कर टाल देना आसान नहीं  होगा। ऊपर से देखने पर भारत की नई नीति आक्रामक लग सकती है। ध्यान से देखा जाए तो यह एक तरह से कूटनीतिक समर्पण है। आज  तक भारत जोर दे कर कहता आया था कि कश्मीर के मुद्दे पर किसी  तीसरे पक्ष को दखलअंदाजी करने की इजाज़त नहीं है। अब वह एक  शिकायत-कर्ता देश के रूप में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने    पाकिस्तान के बराबर खडा हो गया है। पाकिस्तान लम्बे समय से  कश्मीर का रोना रोता रहा है और दुनिया आम तौर पर अनसुना करती  रही है। कहीं भारत की शिकायतों का भी यही हश्र न हो।

प्रधानमंत्री के लाल किले  वाले  भाषण  पर  प्रतिक्रिया  देते  हुए अमेरिकी राज्य विभाग की प्रवक्ता एलिजाबेथ त्रूदों ने पाक-अधिकृत कश्मीर का जिक्र किए बगैर भारतीय कश्मीर में चल रहे हिंसक टकराव  पर चिंता प्रकट की और संकट के समाधान के लिए ‘भारत और  पाकिस्तान के बीच बातचीत’ की जरूरत को रेखांकित किया। यह भारत  की इस पोजीशन की आलोचना है कि वह भारतीय कश्मीर के हालात   पर बातचीत नहीं करेगा।

भारत की असुविधाजनक कूटनीतिक स्थिति के पीछे कश्मीर के  बिगड़ते हुए हालात हैं। चालीस से अधिक दिनों से कर्फ्यू के बावज़ूद  हिंसक टकराव जारी है।। आठ जुलाई को सुरक्षा बलों के हाथों हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की मौत हुई। वानी को कश्मीर का  नया पोस्टर बॉय कहा जाता था। उसके जनाजे में अभूतपूर्व भीड़  उमड़ी। समूचे कश्मीर में लाखों लोग उसके मातम में सडकों पर  निकले। तब से विभिन्न इलाकों में पत्थरबाजी की घटनाएं हो रही हैं। इन्हें नियंत्रित करने के लिए सुरक्षा बलों को कठोर कार्रवाई करनी पड़ी  है। आंसू गैस, छर्रा–बन्दूकों और गोलीबारी का जम कर इस्तेमाल हो  रहा है। इन कार्रवाइयों में अब तक पैंसठ से ज्यादा लोगों को जान से  हाथ धोना पड़ा है। घायलों  की  संख्या  हजारों में है। बड़ी संख्या उन  घायलों की है, जो छर्रों से अपनी एक या दोनों आँखें गंवा बैठे हैं। उपद्रवी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए छर्रा-बन्दूकों का इस्तेमाल  दुनिया में कहीं नहीं होता। कभी गोली चलानी पड़े तो भी निशाना आँखों  को नहीं, पैरों को बनाया जाता है। भारत में भी छर्रों का सिलसिला   2010 से ही शुरू हुआ है। इन बन्दूकों का असर देख कर कश्मीर गए  एम्स के डॉक्टर भी विचलित हो उठे। उन्होंने इनके इस्तेमाल पर रोक  लगाने की मांग  की। यह मांग संसद के भीतर भी उठी। लेकिन अब  भी इन बन्दूकों का इस्तेमाल अबाध रूप से जारी  है।

दुनिया भर में खबरें छप रही हैं। पाकिस्तान को शोर मचाने का  सुनहरा मौका हासिल हो गया  है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार उच्चायुक्त ने जांच-पड़ताल के लिए भारत और पाकिस्तान से कश्मीर  के दोनों हिस्सों में आने की इजाजत मांगी। न मिलने पर निराशा  जताई। भारत पर जवाब देने का दबाव बढ़ता जा रहा है। इससे बचने  का बलूचिस्तान की तरफ दुनिया का ध्यान खींचने के सिवा और कोई  उपाय उसे सूझ नहीं रहा।

सैनिक कार्रवाई की सीमाएंइसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर की समस्या अपने इतिहास के सब से नाजुक दौर में है। 2008 और 2010 के तूफान से गुजर कर आए कश्मीर में  2014 के चुनाव नई उम्मीद ले कर आए थे। इन  चुनावों में 65 प्रतिशत से ज्यादा वोट पड़े थे। जम्मू-कश्मीर के  इतिहास  में पहले कभी मतदाताओं ने चुनावों में इतनी रुचि नहीं दिखाई थी। आम तौर पर शान्ति थी।  पर्यटन उरूज पर था।

लेकिन 2016 के आते-आते हालात एकदम पलट गए। इस तीखे  बदलाव की सबसे भरोसेमंद गवाही खुद सेना के एक शीर्षस्थ अधिकारी लेफ्टिनेंट-जनरल जी एस हूडा ने दी। उन्होंने एक इंटरव्यू में एसोसिएटेड  प्रेस को बताया कि कश्मीरी लड़ाकों के खिलाफ अभियान चलाना इन  दिनों बेहद मुश्किल हो गया है। सेना के लिए आम जनता की  सहानुभूति बहुत कम हो गई है। लोग लड़ाकों की तरफ़ झुक गए हैं। अगर आस-पास लोगों की भीड़ हो तो सुरक्षा कार्रवाइयों के  दौरान  पहले जैसी निश्चिंतता महसूस नहीं होती। कश्मीर में सेना जो कर  सकती थी, कर चुकी है। इससे आगे कुछ करने की स्थिति नहीं है। वृत्तांत (नैरेटिव) की लड़ाई में हमारी हार हो रही है। हमारी बताई  कहानी की जगह लोग लड़ाकों की कही कहानी पर भरोसा करने लगे  हैं। कश्मीर में पहली बार सेना को इतनी प्रतिकूल परिस्थिति का  सामना करना पड़ रहा है। 

लेफ्टिनेंट-जनरल हूडा के इस बयान में साफगोई और  सचाई  है। आंतरिक संघर्षों में जनता के समर्थन के बगैर कोई फौज जीत नहीं  सकती। फौज गोपनीय सूचनाओं और स्थानीय सहयोग के लिए जनता  पर निर्भर करती है। अगर लोग फौज की जगह लड़ाकों के साथ  सहयोग करने लगें और फौजी कार्रवाइयों में बाधा डालने लगें तो किसी  भी फौज के लिए देर तक लड़ना संभव नहीं  है। अफगानिस्तान और  इराक  में दुनिया की ताकतवर फौजों के साथ ऐसा होते देखा गया है। जमीन पर जीतने की पहले किसी भी फौज को वृत्तान्त की लड़ाई जीतनी होती है।

ध्यान देने की बात है कि अफसर का यह बयान बुरहान वानी की  मौत के पहले का है। स्थिति अब कई गुना अधिक खराब हो चुकी है। कठोरतम सैनिक कार्रवाई के बावजूद लोग हजारों की संख्या में बाहर  निकल रहे हैं। शहरों से ले कर गांवों तक यही सिलसिला चल रहा है। प्रदर्शन होते हैं। पत्थरबाजी होती है। सेना रोकती है। छर्रे–गोलियां  चलती हैं। लोग मरते हैं। घायल होते हैं। हर एक मौत के बाद फिर  वैसे ही बड़े विरोध–प्रदर्शन शुरू हो जाते हैं।
 

सेना की कार्रवाई में ‘अतिरेक’ की चर्चा संसद तक में हुई है। प्रदर्शनकारियों के चेहरों और आँखों पर निशाना साधने का औचित्य साबित करना सचमुच कठिन है। घायलों को ढोने वाली एम्बुलेंसों को  भी निशाना बनाया जा रहा है। शायद इस भय से कि कहीं उनमें  आतंकवादी न छुपे हों। एम्बुलेंस चलाते हुए जिन ड्राइवरों को छर्रे लगे, उनमें एक गुलाम मुहम्मद सोफी हैं। वे चौदह साल के एक बच्चे समेत दो लोगों को हस्पताल ले जा रहे थे। उनके दाहिने हाथ में दो सौ छर्रे  लगे। खून बहता रहा, लेकिन एक हाथ से ड्राइव करते हुए उन्होंने मरीजों को सकुशल हस्पताल पहुंचाया। युद्ध के दौरान भी एम्बुलेंस को निशाना  बनाने की मनाही होती है। अभी तक एम्बुलेंस में आतंकियों के छुपे  होने का कोई मामला सामने नहीं आया  है। लेकिन एक हद तक बढ़  जाने के बाद भय अपना पुनरुत्पादन करने लगता है। उसे अपने अतिरिक्त किसी दूसरे आधार या तर्क  की जरूरत नहीं रह जाती।  एटीएम मशीन के एक खवाले के शरीर में तीन सौ छर्रे मिले। उसकी  मृत्य हो गई।

कश्मीरी अखबारों में रोज खबरें छप रही हैं कि दूर-दराज़ के  गांवों में फौज  की रेड हो रही है। लोगों का  कहना  है  कि  बिना  किसी उकसावे  के दमनात्मक कार्रवाइयां की जा रही  हैं। अरिपंथान में  ऐसी  एक  कार्रवाई  में  चार  लोग मारे   गए। इसी तरह ख्रेव में में   तीस  साल  के एक लेक्चरर  को  पीट  पीट  कर  मारा  डाला  गया। केंद्र  द्वारा सार्वजनिक रूप से बार बार दिए जा रहे अधिकतम संयम  के  निर्देश के बावजूद सरक्षा बलों की आक्रामकता में कोई कमी नहीं आ  रही। कर्फ्यू लगातार जारी है। मोबाइल – इंटरनेट सेवाएं अक्सर बंद कर  दी जाती हैं। कुछ दिनों के लिए अखबारों का वितरण भी रोका गया।

लेकिन क्या इन ‘अतिरेकों’ के लिए सुरक्षा बलों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है? सैन्य एजेंसियां हमेशा सरकार द्वारा तय की  गई नीतियों को सरकार द्वारा सुझाए गए ढंग से लागू करती  हैं। अगर ऐसा न करें तो सरकार उन्हें तत्क्षण रोक सकती है। भारत में सेना के  पास कोई स्वायत्त सत्ता नहीं  है, जैसी उसे पाकिस्तान या म्याम्मार में  हासिल है। तो क्या सरकार आंतरिक रूप से दमन के बेरहम तरीकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही है, और सार्वजनिक रूप से संयम बरतने का निर्देश जारी कर रही है? अगर ऐसा है तो यह एक पाखण्डपूर्ण स्थिति है। यह देश के अलावा सेना के साथ भी धोखा है। किसी भी सेना के लिए सब से कठिन परिस्थिति वह होती है, जब उसे आंतरिक  संघर्षों से निपटने के काम में लगा दिया जाता है। सेना की सारी  तैयारी शत्रु सेना से युद्ध करने के लिए होती है। शत्रु से लड़ते हुए मरने–मारने का एक गौरव होता है। ‘शत्रु’ अगर लोगों के बीच छुपा हुआ हो तो अपने ही  देश की जनता से युद्ध जैसी स्थिति बन सकती है। इस  युद्ध में न मारने  का गौरव है, न मरने का संतोष। खतरा सब से  अधिक, क्योंकि दुश्मन अदृश्य  है। वह कभी भी, कहीं से भी, प्रकट हो  सकता है। सैनिक के लिए इससे अधिक तनावपूर्ण स्थिति नहीं हो  सकती। अगर उसे लम्बे समय तक, जान हथेली पर रख कर, ऐसा काम  करना पड़े, जिससे उन्हीं लोगों के मन  में  नफरत और गुस्सा पैदा  होता हो, जिनके  लिए जीने-मरने का संकल्प ले कर उसने अपने  जीवन का नक्शा बनाया था, तो इसके अवांछित मनोवैज्ञानिक नतीजे हो  सकते हैं।

तिस  पर सरकार उसके हाथों हुई मानवाधिकार की हर चूक को ‘अतिरेक’ बता कर ‘संयम’ बरतने के निर्देश जारी कर देती है। स्वयं ऐसे हर पाप की जिम्मेदारी से अपने हाथ झाड़ लेती है। जांच, सजा और  सार्वजनिक अपमान का खतरा हमेशा सैनिक के सर पर ही मंडराता  है।    ऐसे में यह नामुमकिन है कि उसका व्यवहार हमेशा संयत बना रहे।  यह अकारण नहीं है कि पिछले दशक में सेना में  मनोरोग, आत्महत्याएं और बन्धु-हत्याएं बढ़ी हैं। हर साल तक़रीबन सौ सैनिक खुद अपनी जान  ले रहे हैं। 2014 में रक्षा मंत्री परिक्कर द्वारा दी गई जानकारी के  मुताबक सन 2007 और 2008 में यह संख्या क्रमशः 142 और 150 थी। इतनी बड़ी कीमत चुकाने के बाद भी सेना के भीतर वृत्तान्त की  लड़ाई में हार का अहसास बढ़ता जा रहा है। इस त्रासद लड़ाई में जीत  जैसी कोई चीज होगी, इसकी उम्मीद लगभग खत्म हो चुकी है। क्या  सेना की ऐसी  हालत  देश के हित में है?

आज कश्मीर कल भारतआजादी के बाद से ही कश्मीर पाकिस्तान की राजनीति का केन्द्रबिंदु रहा है। इस राजनीति ने पाकिस्तान को सैन्य तंत्र में बदल दिया है। लोकतंत्र  वहां सेना के रहमो-करम पर जिंदा है। जैसे-जैसे कश्मीर भारतीय राजनीति का केन्द्रबिंदु बनता जाएगा, भारत के लिए भी ऐसी परिणति से बचना कठिन होता जाएगा।

कश्मीर में लोकतंत्र को पनपने का अवसर नहीं मिला। जम्मू-कश्मीर समेत समूचे उत्तर-पूर्व में अफ्स्पा लागू है। एनएसए और  यूएपीए जैसे दमनकारी ‘विशेष’ कानून देश भर में लागू हैं। राज्यों में  उनके अपने विशेष कानून हैं। आसाधारण परिस्थिति और आपात  स्थिति के तर्क से इन कानूनों को जायज ठहराया जाता है। इनमें से  बहुतेरे कानून अंग्रेजों के उन कानूनों से भी अधिक काले  हैं, जिनके खिलाफ भारतवासियों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। यह भी सर्वज्ञात  है कि इन कानूनों का सब से अधिक दुरुपयोग कमजोर वर्गों, जैसे आदिवासियो, मुसलमानों और दलितों, के विरुद्ध होता आया है। अगर ‘असाधारण’ और ‘विशेष’ कानून स्थायी और आम हो  जाएं तो लोकतंत्र  पर सैन्य तंत्र पर हावी हो जाता है।

यथास्थिति के पक्ष में जनमत बनाने के लिए उग्र, आक्रामक और  अतार्किक राष्ट्रवाद की जरूरत होती है। ऐसे माहौल में बातचीत, बहस और विचार-विमर्श की गुंजाइश नहीं रह जाती। छोटी से छोटी  असहमति को भी देशद्रोह करार दे कर दबा दिया जाता है। यथास्थितिवादी सरकार असहमति और बहस के विस्तार का खतरा नहीं उठा सकती। उसके पास असुविधाजनक सवालों के उत्तर नहीं होते। उसे मजबूरन दमनकारी कानूनों और धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करना  पड़ता है।

फिर इस वातावरण को बनाए रखने के लिए यथास्थिति कायम  रखनी पड़ती है। संकट के नाम पर ही इस कष्टप्रद राजनीतिक  वातावरण को जनता के लिए स्वीकार्य बनाया जा सकता है। संकट नहीं  तो विशेषाधिकारों का तर्क नहीं।

कश्मीर में बढ़ता हुआ दमन नफरत और उन्माद की राजनीति को  जनाधार मुहैया करता है। लोग रोज-ब-रोज की अपनी तकलीफों को  भूल कर सरकार के साथ खड़े होने लगते हैं। कश्मीर का संकट  राजनीतिक तंत्र के संकट का समाधान बन जाता है।

इस तरह कश्मीर के संकट और देश में उन्माद की राजनीति का    दुश्चक्र बन जाता है। दोनों एक-दूसरे की लिए जरूरी और मजबूती देने वाले बन जाते हैं। यह दुश्चक्र राजनीतिक वर्ग का रक्षा-कवच है। भले  ही जनता पर दमनकारी शिकंजा और कस जाए।

यों ‘कश्मीर’ घाटी से निकल कर देश भर में व्यापने  लगता  है।

कश्मीर संकट के मिथक जाहिर है, कश्मीर में यथास्थिति देशहित में नहीं है। इसके दुष्परिणाम  कश्मीर की जनता को, भारतीय सेना को, देश की बाकी जनता को भी  भुगतने पड़ रहे हैं। कश्मीर का संकट भारतीय लोकतंत्र को खतरे में  डाल रहा है। उन्मुक्त बातचीत और जीवंत बहसों के लोकतांत्रिक  वातावरण की जगह देश भर में उन्माद, हिंसा और दमन का लोकतंत्र-विरोधी वातावरण बन रहा है। लेकिन, समाधान क्या है?
मैं यहां समाधान का सवाल भारत के नजरिए से उठा रहा हूं।

सभी हिस्सेदारों के लिए कश्मीर के संकट का मतलब अलग-अलग  है। समाधान संकट की पहचान पर निर्भर करता है। बहुत-से कश्मीरियों  की नजर में कश्मीर पर भारत का कब्जा अवैध है। उनका  कहना  है  कि विलय पत्र पर राजा ने दस्तखत किए थे। अवाम से उसकी ताईद कराने का काम अब तक बाकी है। यह ताईद विलय की शर्त थी। उनके  मुताबिक भारत ने यह शर्त पूरी नहीं की। उसने फौज-फांटे के बल पर  कश्मीर पर कब्जा कर रखा है। उनके लिए कश्मीर संकट का एकमात्र   समाधान कश्मीर की आजादी है। कुछ के लिए पाकिस्तान के साथ  विलय भी एक विकल्प हो सकता है। भारत-समर्थक कुछ लोग 1953 से  पहले की स्थिति की बहाली की बात करते हैं, जब धारा 370 के  प्रावधानों को कमजोर नहीं किया गया था। इसका मतलब है रक्षा, विदेशी  मामले  और  संचार  को  छोड़ कर बाकी सभी मामलों में  कश्मीर की पूर्ण स्वायत्तता।

लेकिन यहां मैं एक गैर-कश्मीरी भारतीय नागरिक के नजरिए से  बात करना चाहता  हूं। हमारे कश्मीर संकट का समाधान क्या है? उस  राजनीतिक-सामाजिक दुश्चक्र से निजात पाने का रास्ता क्या  है, जिसका केन्द्रक कश्मीर की ‘असामान्य’ स्थिति है?

इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी नजर  में कश्मीर संकट की असली वजह क्या है।

यहीं हमारी मुलाक़ात कश्मीर संकट के बहुतेरे मिथकों से होती है।

बहुत-से लोग मानने लगे हैं कि कश्मीर के संकट के पीछे असली  वजह पाकिस्तान है। संसद में हुई हालिया बहस में स्वयं गृह मंत्री ने  कहा कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए पाकिस्तान जिम्मेदार है। जब तक पाकिस्तान को सबक नहीं सिखाया जाता, कश्मीर का मसला हल नहीं होगा। लेकिन पाकिस्तान को सबक कैसे सिखाया जाए?

नया आइडिया यह है कि पाकिस्तान को बलूचिस्तान में उसी  तरह फंसा दिया जाए, जिस तरह उसने हमें कश्मीर में फंसा रखा है। इसके अपने कूटनीतिक खतरे हैं, जिनका जिक्र लेख की शुरुआत में है। दूसरे, पाकिस्तान भारत की तरह ही एक एटॉमिक पावर है। इसलिए हवा  में चाहे जितनी तलवार भांज ली जाए, भारत और पाकिस्तान के बीच  वास्तविक युद्ध अब सम्भव नहीं है। दोनों खुद को बर्बाद करने को तैयार भी हो जाएं तो दुनिया, माने अमेरिका, उन्हें ऐसा करने नहीं देगी। अमेरिका  को अपने ही कारणों से पाकिस्तान की जरूरत है। वह  पाकिस्तान का इस्तेमाल कथित अल क़ायदा के खिलाफ अपने सैनिक  अड्डे की तरह करता है। इसलिए भारत उससे लाख दोस्ती कर ले, न  तो वह भारत और  पाकिस्तान  के बीच  युद्ध की इजाजत देगा, न  ही  कश्मीर के मसले पर पलड़े को भारत के पक्ष में झुक जाने की। ऊपर  अमेरिकी राज्य विभाग की प्रवक्ता के ताजा बयान का जिक्र किया  गया है, जिससे यह बात एकदम साफ हो जाती है।

पाकिस्तान की पीठ पर चीन का हाथ भी है। चीन के आर्थिक–राजनीतिक हित भी भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ जुड़े हुए हैं। वह भी भारत और पाकिस्तान को संतुलित करने वाले कश्मीर नाम के लिवर के साथ अधिक छेड़-छाड़ गवारा नहीं कर सकता। चीन और  अमेरिका दोनों का स्वार्थ इसी में है कि कश्मीर में यथास्थिति यानी    भारत-पाकिस्तान के बीच ‘नियंत्रित शत्रुता’ बनी रहे। दोनों को एक  दूसरे का भय दिखा कर अपना उल्लू सीधा किया जा सके। वैसे ही जैसे दोनों मुल्कों के शासक वर्ग का हित कश्मीर के मसले को जिंदा रखने  में है, उसे हल करने में नहीं।

कितना जिम्मेदार है पाकिस्तान क्या सचमुच पाकिस्तान ही कश्मीर संकट के लिए पूरी तरह  जिम्मेदार है? कश्मीर की वर्तमान ‘अशांति’ सुरक्षा बलों के हाथों बुरहान  वानी की मौत से उत्प्रेरित है। इस पर एक बहस यह है कि बुरहान को  ठिकाने लगाने का यह सही वक़्त था या नहीं। राज्य की कमान एक  अनुभवहीन मुख्यमंत्री के हाथ में थी। सत्ताधारी गंठबंधन के भीतर  इतना तनाव था कि पुराने मुख्यमंत्री की मौत के बाद कई दिनों तक  राजनीतिक अनिश्चितता बनी रही थी। बुरहान की सब से ज्यादा  सक्रियता सोशल मीडिया पर थी। उसका चेहरा जाना-पहचाना  था। उसने  जान-बूझ कर चेहरा छुपाया नहीं था। वह लम्बे समय से एजेंसियों के रडार पर था। उसे आसानी से गिरफ्तार किया जा सकता था। ऐसा होने  पर निश्चय ही वह भावनात्मक प्रतिक्रिया न होती, जिसने आज कश्मीर  में अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है। 

जो भी हो, बुरहान की मौत में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं है।

इसके पहले 2008 और 2010 में जन आक्रोश प्रकट हुआ था।  क्रमशः अमरनाथ यात्रा ट्रस्ट को जमीनें सौंपने के सरकारी फैसले और फर्जी मुठभेड़ में तीन निर्दोष कश्मीरियों की हत्या के बाद। फर्जी मुठभेड़  के मामले में जांच हुई और दोषी पाए गए सात फौजियों को सजा भी  मिली। जाहिर है,  इन घटनाओं में पाकिस्तान की कोई भूमिका नहीं थी।

बीते दो दशकों में जब कभी कश्मीर अशांत हुआ, स्थानीय कारणों  से हुआ। अन्यथा शान्ति  बनी  रही। इसलिए अशांति के लिए  पाकिस्तान को ‘श्रेय’ देना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता।

कश्मीर में नब्बे के दशक में चले आतंकवादी आन्दोलन के प्रमुख  सूत्रधार जरूर पाकिस्तान में बैठे लश्करे-ताइबा और जैशे मुहम्मद जैसे संगठन थे। माना जाता है कि इन संगठनों को पाकिस्तानी सेना और  सरकार का सक्रिय सहयोग हासिल था। सोवियत संघ के पतन  के  बाद अफगानिस्तान में पाक–पोषित, अमेरिका-समर्थित तालिबान के पास  काम की कमी हो गई थी। कश्मीर में आतंकी गतिविधियां बढ़ा कर वे  अपने लड़ाकों को नए काम पर लगा सकते थे। साथ ही, पाकिस्तानी  फौज  के साथ अपने समीकरण भी साध कर रख सकते थे।

कश्मीर की जनता के मन में भारतीय राज्य के खिलाफ जो  गुस्सा धीरे-धीरे इकट्ठा होता गया है, उससे आतंक के इन व्यापारियों  को कश्मीर में मनचीता माहौल मिल गया। तो भी नब्बे के दशक में   स्थानीय युवकों की भागीदारी कम थी। आतंक  को अवाम  का सक्रिय  समर्थन हासिल नहीं था।

2001 में नाइन इलेवन हुआ और अमेरिका ने तालिबान के  खिलाफ़ विश्वव्यापी युद्ध का आगाज कर दिया। बदली हुई  परिस्थितियों  में पाकिस्तान को तालिबान  के सक्रिय  समर्थन  से हाथ खींचने  पड़े। इसी के साथ कश्मीर में आतंकी गतिविधियां सिमटती चली गईं। आज घाटी में विदेशी या विदेशों में प्रशिक्षित लड़ाकों की संख्या अत्यंत  सीमित है। 2004 के बाद से घाटी में आतंकी घटनाओं का ग्राफ तेजी  से नीचे गिरता चला गया है।

आज की स्थिति बिलकुल जुदा है।

वर्तमान अशांति में न केवल स्थानीय युवक भारी संख्या में  शामिल हैं, बल्कि उन्हें आम जनता का भरपूर समर्थन  मिल रहा है। इनके हाथों में विदेशी हथियार नहीं हैं, गली-सड़क से उठाए गए पत्थर  हैं। माता-पिता, जो नब्बे के दशक में अपनी युवा संतानों को बरजते थे, आज उनका उत्साह बढ़ाते नजर आ रहे हैं। जनाजों में आम लोगों की विराट भागीदारी दिखा रही है कि राज्य का भय समाप्त हो चुका है।  बच्चे और महिलाएं भी जलसों-जुलूसों में शरीक हो रहे हैं। आज कश्मीर  का कोई जानकार स्वीकार नहीं करेगा कि वर्तमान अशांति पाकिस्तान  द्वारा प्रेरित या प्रायोजित है।

कश्मीर से पाकिस्तान का संबंध जोड़ने वाले यह भूल जाते हैं कि शेख अब्दुल्ला के नेतृत्त्व में कश्मीर की जनता ने उस वक्त  पाकिस्तान की जगह भारत का समर्थन किया था, जब देश में साम्प्रदायिक तनाव चरम पर था। वे होलोकास्ट के बाद बीसवीं सदी  की  दूसरी सब से बड़ी त्रासदी भारत विभाजन के दिन थे।

कश्मीर में प्रतिरोध का मुख्य एजेंडा आजादी है, पाकिस्तान के साथ विलय नहीं। यही कारण है कि लश्कर या जैश को कश्मीर की  जनता का व्यापक समर्थन नहीं मिला। हुर्रियत के भीतर भी पाकिस्तान के साथ विलय के समर्थक केवल सैयद अली शाह गिलानी हैं। गिलानी  साहब ने 2014 में कश्मीर के अवाम से बार-बार चुनाव बहिष्कार की  अपील की। हुर्रियत के दूसरे नेताओं ने भी इसका समर्थन  किया। बावजूद इसके, इस चुनाव में मतदाताओं का प्रतिशत सब से ज्यादा  रहा। साफ जाहिर है कि हुर्रियत कश्मीर की जनता का सार्वकालिक  प्रतिनिधि नहीं है। वह कश्मीर की जनता से किए अपने वादे पूरे नहीं  कर सकी। इसी कारण किसी जमाने में लोकप्रिय रहे उसके सभी नेता एक-एक कर अप्रासंगिक होते गए। वर्तमान अशांति के समय जनता  भले ही हुर्रियत नेताओं द्वारा जारी कैलेंडर का पालन कर रही हो, यह  अभूतपूर्व दमन के सामने प्रतिरोध को टिकाए रखने की भावना के कारण है, हुर्रियत नेताओं की अपील के कारण नहीं।

कहा गया कि चुनावों में भागीदारी का मतलब यह नहीं है कि कश्मीर के लोगों ने भारत के संविधान को मंजूर कर लिया है। यह ठीक है, लेकिन इतना तो है  कि कश्मीर के मतदाता ने भारतीय राज्य से  कुछ उम्मीद लगाई थी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लेखक राकेश कुमार सिन्हा एक  राष्ट्रीय चैनल पर कहते सुने गए कि कश्मीर समस्या की  मूल  वजह  मस्जिदों में दी जाने वाली कट्टरतावादी तकरीरें हैं। उन्होंने रोज़गार के  अभाव, विकास की धीमी गति और मानवाधिकारों की दुर्दशा जैसे  कारकों को समस्या की मूल वजह बताने का जोरदार खंडन किया। उनकी इस दूसरी बात का समर्थन कश्मीर के अलगाववादी नेता भी  करते हैं। पिछले दिनों केंद्र सरकार की तरफ से कश्मीर के विकास  की लम्बी-चौड़ी योजनाओं की घोषणा की गई। प्रधानमंत्री ने बीते नौ अगस्त  को ‘भारत छोड़ो’ दिवस के अवसर पर कश्मीर में विकास का संकल्प  दुहराया। कश्मीर के लोगों को ये घोषणाएं घाव पर नमक छिडकने  जैसी लगीं। कश्मीर से उठने वाली हर आवाज यही कहती है कि कश्मीर एक  राजनीतिक समस्या है। इसके राजनीतिक चरित्र को नामंजूर करना कश्मीर में यथास्थिति बनाए रखने की उद्दंड जिद के सिवा और कुछ नहीं है।

केंद्र की भाजपा सरकार चाहे पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराए या विकास की बात करे, कश्मीर की समस्या के प्रति उसका नजरिया मूलतः वही है, जो  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। यह नजरिया इसे एक धार्मिक-साम्प्रदायिक समस्या के रूप में देखता है। इनके लेखे समस्या केवल कश्मीर घाटी में है, जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं। चूंकि  मुसलमान कट्टर, अतिवादी और अलगाववादी होते हैं, इसलिए वे हिंदू  बहुसंख्या वाले देश भारत में रहना कभी पसंद नहीं करेंगे। 

धोखा-दर-धोखा  फिर क्यों विभाजन के समय कश्मीर ने भारत के साथ रहने का  विकल्प चुना था, चाहे कुछ शर्तों के साथ? यह नजरिया इस सवाल का जवाब भी नहीं दे सकता कि कश्मीर में अलगाववादी आन्दोलन विलय   के चार दशक बाद क्यों शुरू हुआ। 

कश्मीर विशेषज्ञ बलराज पुरी के अनुसार कश्मीर घाटी में  साम्प्रदायिक घटनाओं की शुरुआत फरवरी 1986 में हुई। हजारों वर्षों  के इतिहास में इसके पहले कश्मीर में कभी साम्प्रदायिक तनाव नहीं  देखा गया। कश्मीरियत शैवों, बौद्धों और सूफियों की उस मिलीजुली  संस्कृति की ओर इशारा करती है, जिसमें भिन्न धर्मों के लोग एकमन  और एकप्राण हो कर रहते आए हैं। कश्मीरियत की पहचान शिवभक्त  कवयित्री लल द्यद और उनके प्रशंसक शेख नूरुद्दीन वली से हैं, जिन्हें  कश्मीरी नुंद रिशी के नाम से जानते  हैं।

ऐसे कश्मीर में सन छियासी के आसपास अचानक साम्प्रदायिक  तनाव बढ़ना क्यों शुरू हुआ, जिसकी परिणति भारी संख्या में कश्मीरी  पंडितों के पलायन में हुई? कश्मीर में सन 1977 और 1983 में हुए   चुनाव साफ-सुथरे माने जाते हैं। इसके पहले के सारे चुनाव फर्जी थे। इस मान्यता का खंडन कोई नहीं करता। लेकिन यह भी सच है कि 1983 के चुनाव में ही जम्मू–कश्मीर की राजनीति में पहली बार  साम्प्रदायिक कार्ड खेला गया। यह  ‘शुभ कार्य’ किसी  और  के हाथों  नहीं, खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों हुआ। उन्होंने विधान सभा  द्वारा पारित पुनर्वास विधेयक का भय दिखा कर जम्मू के हिंदुओं का  ध्रुवीकरण किया। पुनर्वास विधेयक पाकिस्तान गए कश्मीरियों को  वापस  लौटने, अपनी पीछे  छूटी संपत्तियों पर दावा करने और दुबारा बस  जाने का अधिकार देने के विषय में था। इस चुनाव में जम्मू में कांग्रेस  को भरपूर वोट मिले, वैसे ही जैसे 2014 में बीजेपी को मिले। पहली  बार जम्मू और घाटी के बीच राजनीतिक सतह पर साम्प्रदायिक विभाजन देखा  गया। नेशनल  कांफ्रेंस को भी इसका लाभ हुआ। 75  में 46 सीटें जीत कर उसने सरकार बना ली।

लेकिन साल भर के भीतर ही केंद्र की कांग्रेस सरकार ने  राज्यपाल जगमोहन की मदद से फारूक अब्दुल्ला की चुनी हुई सरकार  गिरा  दी। केंद्र की शह पर हुए दलबदल के बाद जी एम शाह की  सरकार बनी। जनाधार–विहीन शाह सरकार ने इंदिरा गांधी के दिखाए  रास्ते पर चलते हुए जम्मू में हिंदुओं और घाटी में मुसलमानों की  धार्मिक भावनाओं को भुनाने की भरपूर कोशिश की। सन 86 में  अनंतनाग में हुई साम्प्रदायिक घटनाओं की जांच करने वाले बलराज   पुरी का निष्कर्ष था कि ये घटनाएं स्वतःस्फूर्त नहीं, राजनीतिक  षड्यंत्र  का परिणाम थीं। प्रवीन दोंथी ने कश्मीरी पत्रकार युसूफ जमील के हवाले  से लिखा है कि अनंतनाग की घटनाओं के पीछे तब के वरिष्ठतम कांग्रेसी नेता मुफ्ती मुहम्मद सईद का हाथ हो सकता है, जो शाह  सरकार से छुटकारा पा कर खुद मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। अनंतनाग उनका अपना इलाका था।  

चतुर्दिक फैली अराजकता के बहाने हुए कुछ समय बाद ही यह  सरकार भी बर्खास्त कर दी गई। आपातकाल के दौरान ‘तुर्कमान गेट के  कसाई’ के रूप में मशहूर हुए जगमोहन अब सर्वाधिकार-सम्पन्न हो  गए।
 

राज्यपाल जगमोहन ने कई ऐसे फैसले लिए, जिनकी वज़ह से    घाटी का बिगड़ता साम्प्रदायिक माहौल और ज्यादा बिगड़ गया। उन्होंने राज्य सरकार की सब-ऑर्डीनेट सेवाओं के आरक्षण के नियमों में कुछ ऐसे बदलाव किए, जिनसे इन सेवाओं में मुसलमानों के चयन का  प्रतिशत घट कर आधा रह गया। हिंदू त्योहारों के दिन मांस की बिक्री  पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जगमोहन की अनुशंसा पर भारतीय  संविधान की धारा 249 को कश्मीर पर लागू कर दिया गया, जिससे  भारतीय संसद को कश्मीर में राज्य सूची के विषयों पर  क़ानून  बनाने  का अधिकार मिल गया। यह अनुशंसा उन्होंने जम्मू-कश्मीर की  संविधान सभा के अधिकारों का इस्तेमाल करते हुई की। राज्यपाल या  जमू-कश्मीर की सरकार को ऐसा करने का अधिकार है या नहीं, इस  बारे में गहरे संशय हैं, क्योंकि संविधान सभा भंग की जा चुकी है। जगमोहन ने धारा 370 को समाप्त करने के अपने इरादे को भी कभी छुपाया नहीं। जिन कारणों से जगमोहन घाटी में अलोकप्रिय होते गए, उन्हीं कारणों से जम्मू में उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई। 

अब तक फारूक अब्दुल्ला की समझ में आ गया था कि केंद्र से  पंगा लेने का मतलब सत्ता से बेदखल रहना होगा। उन्होंने राजीव गांधी  के साथ समझौता कर लिया और कांग्रेस पार्टी के साथ गंठबंधन कर  1987 का चुनाव लड़ने  को राजी हो  गए।

घटनाओं के इस सिलसिले से साफ ज़ाहिर है कि कश्मीर की जनता ने जिस किसी पर भरोसा किया, उसी ने उसके साथ  विश्वासघात  किया। जवाहरलाल  नेहरू  ने, शेख अब्दुल्ला  ने, इंदिरा गांधी  ने, फारूक अब्दुल्ला ने, राजीव  गांधी  ने।

जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत  कश्मीरियों के मन में पाकिस्तान से बढ़ कर भारत का आकर्षण  तीन चीजों के लिए था। उन्हें गांधी और नेहरू के देश भारत से  लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवहार की, कश्मीरियत की गरिमा की रक्षा की और मानवीय सम्वेदनशीलता की उम्मीद थी। राजनीतिक इस्लाम की बुनियाद पर खड़े पाकिस्तान से उन्हें इन  चीजों की आशा नहीं थी।  इन तीन चीजों को जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत के रूप में सूत्रबद्ध करके अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीरियों का दिल जीत लिया था। आज भी इन्हें नारे की तरह दुहराया तो जाता है, लेकिन इनके  निहितार्थों पर  बहस  नहीं  होने  दी जाती।

लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवहार में फिर तीन चीजें शामिल थीं – आत्मनिर्णय का अधिकार, स्वायत्तता और चुनावी जनतंत्र। इन्ही बातों के  लिए जनमत संग्रह और धारा 370 को विलय का आधार बनाया  गया था। उस समय प्रत्येक हिस्सेदार को पूरा भरोसा था कि जनमत संग्रह में कश्मीर की जनता भारत का पक्ष चुनेगी। जाहिरा तौर पर जनमत संग्रह की बात यह सोच कर नहीं रखी गई थी कि इसके सहारे  कश्मीर आजाद हो जाएगा। उस वक्त कश्मीर की जनता को सूबे की  आजादी नहीं चाहिए थी। अगर चाहिए होती, तो वह कभी विलय के  पक्षधर शेख अब्दुल्ला के साथ नहीं खडी होती। उस समय वह इतना ही   चाहती थी कि आत्म-निर्णय के उसके अधिकार का सम्मान किया जाए।

वह प्यार के लिए बेशक राजी थी, पर चाहती थी कि उसकी राजी  पूछी जाए!

लेकिन भारतीय राज्य ने इन तमाम उम्मीदों को नेस्तनाबूद किया। कश्मीरी अवाम के सब से मकबूल नेता शेख अब्दुल्ला को लगभग दस वर्षों तक जेल में रखा गया। उन्हें तभी छोड़ा गया जब उन्होंने नेहरू के  साथ यह समझौता कर लिया कि वे कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय का सवाल नहीं उठाएंगे। इस तरह भारत ने कश्मीरियों को निहायत बेअदबी  से यह बताया कि न केवल उनकी राजी नहीं पूछी जाएगी, उन्हें  राजीनामे की बात करने तक की इजाजत नहीं  दी जाएगी। 

कश्मीरी अवाम ने भले भारत पर भरोसा किया हो, भारतीय  राज्य ने कश्मीरियों पर भरोसा नहीं किया। स्वतंत्र और स्वच्छ चुनाव नहीं होने दिए गए। विपक्ष को पनपने नहीं दिया गया। लोकतांत्रिक वातावरण  बनने नहीं दिया गया। 1977 और 1983 के चुनाव जरूर साफ–सुथरे  थे, लेकिन तिरासी के चुनावों पर इंदिरा गांधी की साम्प्रदायिक राजनीति  की छाया मंडरा रही थी। रही धारा 370 के आधार पर मिली  स्वायत्तता, तो वह भी कठपुतली राज्य सरकारों और नामांकित  राज्यपालों की मदद से क्रमशः कमजोर की जाती रही।  

कश्मीरी अस्मिता के मायने कश्मीरियत के भी  तीन  पहलू  हैं - कश्मीरी अस्मिता, साझी संस्कृति और धर्म–निरपेक्षता।

धारा 370 का महत्त्व स्वायत्तता से भी ज्यादा कश्मीरियत की  रक्षा के लिए है। कश्मीरी लोग अपनी कश्मीरी अस्मिता से प्यार करते  हैं। मुगलों से ले कर डोगरा राजाओं तक से उनका संघर्ष कश्मीरी  अस्मिता की रक्षा के लिए होता रहा है, धार्मिक-साम्प्रदायिक कारणों से  नहीं।

लेकिन भारत में एक प्रभावशाली राजनीतिक वर्ग लागू होने के दिन  से ही धारा 370 को समाप्त करने का अभियान चलाता रहा है। इस  वर्ग को शायद यह उम्मीद है कि इस धारा के समाप्त होने के बाद  बाहरी आबादियों को बसा कर जनसंख्या परिवर्तन के माध्यम से  कश्मीर समस्या को हल किया जा सकता  है। पाकिस्तान ने अधिकृत  कश्मीर में यही करने की कोशिश की है। अधिकृत कश्मीर का  जनसांख्यिक और सांस्कृतिक चरित्र कश्मीर घाटी से भिन्न है। कश्मीरियत के लिए जैसा आग्रह घाटी में है, वैसा उसके बाहर नहीं है।  कश्मीरियत के दो आयाम हैं - साझी संस्कृति और कश्मीरी अस्मिता।  इतिहास दिखाता है कि कश्मीरी अवाम ने कभी किसी को अपनी  अस्मिता के साथ छेड़छाड़ की इजाजत नहीं दी है। इतिहास घुल-मिल   कर रहने और साझेपन की संस्कृति विकसित करने की उनकी क्षमता    भी उद्घाटित करता है।

मानवीय सम्वेदनशीलता, मानवतावाद या इंसानियत कश्मीरी  संस्कृति की अंतरात्मा  है। यह लल द्यद की कविता और नुंद रिशी के  सूफी अध्यात्म की विरासत है। कश्मीरी मनुष्य से, जीवन से और  प्रकृति से प्यार करने वाले  लोग हैं। पिछले कुछ दशकों को छोड़ दें तो कश्मीर में हिंसा के लम्बे दौर का कोई इतिहास नहीं है। लेकिन भारत  से जुड़ते ही उन्हें गिरफ्तारी, कर्फ्यू और राज्य दमन के वातावरण का सामना करना पड़ा।

ऐसे हुई आतंकवाद की शुरुआत 1987 आते–आते कश्मीर की जनता हर कोण से खुद को ठगा  हुआ महसूस करने लगी थी। उसकी हर एक उम्मीद तोड़ी गई थी, हर  भरोसे को नेस्तनाबूद  किया गया था। आत्मनिर्णय के अधिकार और  लोकतंत्र की बात क्या, उसे भारत की धर्म–निरपेक्षता तक का भरोसा नहीं रह गया। राज्य और केंद्र की सभी स्थापित पार्टियों से निराश उसने  लोकतंत्र पर आखिरी दांव लगाया। अनेक असंतुष्ट समूहों के ढीलेढाले मोर्चे ‘मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट’ को 1987 के चुनावों में कश्मीरी अवाम का भरपूर समर्थन मिला। कहते हैं,  इन चुनावों में धांधली इस हद तक  हुई कि सत्ताधारी गंठबंधन के खिलाफ लड़ कर जीते हुए उम्मीदवारों  को भी हारा हुआ घोषित कर दिया गया। जीत कर भी हराए गए इन्हीं  उम्मीदवारों में एक थे मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के प्रमुख नेता - सैयद यूसुफ शाह, जिन्होंने आगे चल कर सय्यद सलाहुद्दीन के नाम से हिज्बुल मुजाहिदीन की कमान सम्हाली। शाह के चुनाव प्रबंधक थे यासीन मलिक, जिन्होंने  जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का गठन किया। लोकतंत्र से पूरी तरह नाउम्मीद हो कर बहुत-से असंतुष्ट युवा  आतंकवाद के जाल  में  फंस  गए।

1987 के विफल चुनावों ने कश्मीर में आतंकवाद का अध्याय शुरू कर दिया।

नब्बे का दशक आतंकवाद और उसके सैन्य दमन का दशक है। 1991 में हुए कुनान पोश्पोरा के कथित मास रेप के बाद सैन्य  अतिरेकों के हैरतअंगेज आरोप लगते रहे हैं। कश्मीर में इस दशक में मारे गए लोगों और गायब हो गए लोगों की संख्या लाखों में बताई  जाती है।

जिस किसी को कश्मीर के इस  इतिहास  का तनिक भी अंदाजा होगा, उसे यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कश्मीर का संकट न तो  इस्लाम के कारण है, न ही पाकिस्तान के कारण। उसका एकमात्र  कारण है कश्मीर में भारतीय लोकतंत्र की सम्पूर्ण विफलता। राजनेताओं  द्वारा पाकिस्तान को जिम्मेवार ठहराने के दो उद्देश्य हो सकते हैं। एक, देश की जनता को कश्मीर के विषय में अंधेरे में रखना और  पाकिस्तान विरोधी उन्माद भड़का कर सस्ता जन समर्थन हासिल  करना। दो, कश्मीर की जनता को यह संदेश देना कि कश्मीर के दर्द  को समझने  में भारतीय राज्य की कोई रुचि नहीं है। वह फर्जी लोकतंत्र के सहारे केवल फौजी ताकत के बूते कश्मीर पर कब्जा बनाए रखेगा।

रास्ता इधर से है 
नब्बे-बाद के आतंकवादी आन्दोलन के पराभव के बाद कश्मीर बेचैनी से  ‘सामान्य स्थिति’  की तलाश में था। इस तलाश को 2013 में अफजल  गुरु की फांसी से गहरा आघात पहुंचा। कश्मीर के लोगों को अफजल  की मौत से भी ज्यादा आघात फांसी के तरीके से पहुंचा। अफजल के  परिवार को न तो पूर्वसूचना दी गई, न मिट्टी सौंपी गई। कश्मीर के  लोग अफजल को एक प्रतिबद्ध आतंकवादी के रूप में नहीं देखते। अफजल के मुकदमे की प्रक्रिया पर उन्हें पूरा भरोसा नहीं  है, क्योंकि  उसे कोई सक्षम वकील नहीं  मिला, उसके साथ के आरोपित निर्दोष  पाए गए और उसकी सजा ‘परिस्थितिगत साक्ष्यों’ पर आधारित थी। अफजल के मुद्दे ने कश्मीरी जनमानस को गहराई से आंदोलित किया, लेकिन उसके प्रति भारतीय राज्य और समाज  का रुख ठंढा पड़ा रहा। दूसरे राज्यों में अनेक  दोषसिद्ध आतंकियों को छोड़ा गया है, उनकी  सजाएं कम की गई हैं, उनसे वार्ताएं हुई  हैं, उन्हें सम्मानित तक  किया गया है। लेकिन अफजल की मिट्टी सौंपने की नितांत मानवीय  मांग की भी अनसुनी की गई। इस अनसुनेपन की इंतहा यह है कि  इस  साल जब जेएनयू में कुछ छात्रों  ने अफजल की फांसी के मुद्दे पर  चर्चा  आयोजित की तो राष्ट्रीय ज्यूज चैनलों ने इसे देशद्रोह का मामला बना  कर महीनों तक हंगामा बरपा किया।

इस रवैए से भी कश्मीर घाटी को संदेश यह मिला कि भारतीय  राज्य और समाज उनकी भावनाओं के प्रति किंचित भी सम्वेदनशीलता बरतने को तैयार नहीं है। गहरी चोट खाई इन्हीं भावनाओं को सहला  कर 2014 के चुनावों में पीडीपी ने घाटी में जबर्दस्त सफलता पाई। इस  जनाधार को बचाने  के लिए ही सरकार में आने के बाद उसने  भूतपूर्व  आतंकियों की रिहाई की प्रक्रिया शुरू कीथी, जिससे कश्मीर में सरकार  की सद्भावना के प्रति लोगों में भरोसा पैदा होना शुरू हुआ था। लेकिन  सरकार की साझीदार बीजेपी ने इसे आतंकवाद के प्रति समर्पण के  रूप में देखा। पीडीपी पर कदम वापस खींचने का भरपूर दबाव बनाया  गया। भरोसे की दुबली-सी किरण भी छिन्न –भिन्न हो गई। इसके बाद  भी कोई कसर रह गई हो तो उसे बुरहान वानी के आकस्मिक अंत ने  पूरा कर दिया। बुरहान सक्रिय आतंकी होने  से ज्यादा एक पोस्टर बॉय था, जो कश्मीर की दमित भावनाओं की वाणी बन गया था। उसकी  सक्रियता सब से ज्यादा सोशल मीडिया पर थी। उस पर पुलिस की निगाह थी। उसे गिरफ्तार करने में पुलिस की असफलता और मुठभेड़  में उसकी मृत्यु ने कश्मीर के बरसों से पकते गहरे घावों को भीतर  तक उद्वेलित कर दिया।

आज  की परिस्थिति में सब से अधिक आसान यह मान लेना है  कि सत्तर वर्षों से विश्वासघात, दमन और अपमान झेल रही कश्मीर  की जनता अब किसी भी कीमत पर भारत के साथ नहीं रहना चाहेगी। इसलिए भारत के पास कश्मीर को आजाद कर देने (जिसके लिए देश  की जनता अभी तैयार नहीं है) या  फिर, जब तक रख सकें, सैन्य  नियंत्रण में रखने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। राजनेताओं के  लिए  यह सुविधाजनक भी है, क्योंकि कश्मीर में पुट्ठे चमकाते रहने से बाकी देश का ध्यान जरूरी मुद्दों से हटाने और भावनात्मक उबाल पैदा करना  सब से आसान  हो जाता है।

लेकिन ऊपर हम देख चुके हैं कि कश्मीर में यथास्थिति का बने  रहना खुद भारतीय लोकतंत्र के लिए संकट पैदा करता है। देश के एक  हिस्से में लोकतंत्र का दमन कर बाकी हिस्सों में भी उसे लम्बे समय तक बचा कर नहीं रखा जा सकता। इसके अलावा, कश्मीर का संकट  भारत के लिए एक नैतिक संकट भी है। यह देश के नैतिक  आत्मविश्वास को खोखला करता लजाता है।

यह भी स्पष्ट है कि यथास्थिति हमेशा नहीं बनी रहेगी। कोई  यथास्थिति स्थायी नहीं होती। लेकिन यह जब तक रहेगी, कश्मीर का  भारत के साथ रहना उतना ही कठिन होता जाएगा।

अगर हम कश्मीर को बचाना चाहते हैं तो परिस्थिति की गंभीरता पर तकाल ध्यान देना होगा और कुछ साहसिक कदम उठाने होंगे।

आजादी इंसान की बुनियादी जरूरत है। आज़ादी गंवा कर मनुष्यता  की गरिमा नहीं बचाई जा सकती। मनुष्यता का सारा  इतिहास आजादी  के लिए मनुष्य के महान संघर्ष की कहानी है। लेकिन आजादी की  सब से  ठोस और व्यावहारिक शक्ल जो इंसान ईजाद कर पाया है, वह है  -लोकतंत्र।

लोकतंत्र को त्याग कर आजादी के जितने प्रयोग आज तक किए  गए हैं, वे सब औंधे मुंह गिरे हैं। भारतीय संघ अगर इतनी सारी  राष्ट्रीयताओं (नेशनैलिटीज) को अपने साथ जोड़ कर रख पाया है तो  केवल लोकतंत्र के बूते। अलगाववादी आन्दोलन उन्हीं  इलाकों में हैं, जहां लोकतंत्र  के साथ समझौते किए गए।

सत्तर सालों में भारतीय लोकतंत्र पर कश्मीरी अवाम का भरोसा टूट चुका है। क्या इस भरोसे को फिर से बहाल किया जा सकता है?

भरोसा बहाल करने की पहली शर्त है भरोसा करना।

क्या भारतीय राज्य और भारत के लोग कश्मीरी अवाम को यह  भरोसा दे सकते हैं कि वे उस पर भरोसा करते हैं?

यह तभी सम्भव है जब हम साबित करें कि कश्मीर की अस्मिता, स्वायत्तता और आजादी का सम्मान करते हैं। इसके लिए हमें कश्मीर  में वे आजादियां तत्काल बहाल करनी होंगी, जो शेष भारत की जनता  को हासिल हैं। हाल ही में शहीद चंद्रशेखर आजाद के गाँव भाबरा से देश  को सम्बोधित करते हुए  प्रधानमंत्री ने दावा किया कि कश्मीर को ये  आजादियां पहले से हासिल हैं।

क्या भारत साबित कर सकता है कि यह दावा महज एक जुमला नहीं है?

क्या हम कश्मीरियों की अभिव्यक्ति की आजादी बहाल कर सकते हैं? क्या हम कह सकते हैं कि चाहे वे आजादी की मांग करें या  पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाएं, हम उनकी अभिव्यक्ति पर रोक  नहीं लगाएंगे - चाहे  हम  उनसे लाख असहमत हों?

अगर हम कश्मीरियों को यह आजादी नहीं दे सकते, तो शेष  भारत से भी इसे छीनना पड़ेगा। आज क्या ठीक यही नहीं हो रहा  है?

दुनिया का कोई भी लोकतांत्रिक देश अलगाववादी नारे लगाने, भाषण देने या किताबें लिखने पर रोक नहीं लगाता। अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक से अलगाववाद को बढ़ावा मिलता है, आजादी से नहीं।

अभिव्यक्ति की आजादी के बिना कोई बातचीत शुरू नहीं हो  सकती। आजादी के बिना एकालाप हो सकता है, संवाद नहीं।

कश्मीर के साथ संवाद की अब तक की सारी कोशिशें इसलिए  विफल हो गईं कि दोनों पक्ष प्रस्थान विंदु पर ही सहमत नहीं हैं। भारत  का प्रस्थान विंदु है -  कश्मीर  भारत  का अटूट  अंग  है। कश्मीर  के  सभी हिस्सेदार इससे  सहमत  नहीं  हैं।

कोई बातचीत तभी हो सकती है, जब भारतीय पक्ष अपनी बात  कहते हुए दूसरे पक्ष की बात भी सुनने को तैयार हो। अगर हम कहें  कि बात करना तो दूर, हम आप की बात सुनने को भी तैयार नहीं हैं, तो क्या बातचीत होगी?
क्या हम कश्मीरियों को भरोसा दे सकते हैं कि हम उनकी बात  सुनने, समझने और उस पर बहस करने को तैयार हैं? क्या हम कह सकते  हैं कि हम कश्मीर के भारत का  अटूट अंग होने के सिद्धांत पर  दृढ़  हैं, लेकिन इसे तर्क और प्रमाण से सिद्ध करेंगे, फौजी ताकत से  नहीं? और, बदले में उनसे भी हम यही उम्मीद करते हैं कि वे तर्क और  प्रमाण से बात करें, पत्थरों से नहीं।

लोकतंत्र के दो बुनियादी आशय हैं - अभिव्यक्ति की आजादी और  शर्त–हीन मुक्त बातचीत। जैसे ही हम इन दो बातों को स्वीकार कर  लेंगे, लोकतंत्र की स्पिरिट बहाल हो जाएगी।

संवाद शुरू हो जाएगा। यथास्थिति टूटेगी। समाधान के नए रचनात्मक रास्ते खुलने लगेंगे।

इसके लिए भारत की सम्प्रभुता के साथ समझौता करने की जरूरत नहीं है। उलटे लोकतांत्रिक पुनर्रचना की यह प्रक्रिया भारत  की सम्प्रभुता  और लोकतंत्र को अधिक मजबूत बनाएगी।

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