पत्थर तोड़ने वाले : अशोक भौमिक

अशोक भौमिक
एक चित्र को देखते हुए कई बार , कुछ कारणों के चलते कुछ ऐसे संदर्भ हमें याद आ जाते हैं , जिसके साथ चित्र के सृजन का सम्बन्ध उभर कर आने लगते हैं । चित्र , अपने विषय , शीर्षक और कभी कभी अपने उद्देश्य के कारण ही ऐसे संदर्भों के साथ अनायास एक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं।

उन्नीसवीं सदी के स्वछन्दतावाद (रोमेंटिसिस्म) एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आंदोलन था ,  जिसका प्रभाव साहित्य और दर्शन में व्यापक रूप से पड़ा था । स्वछन्दतावाद का असर हम यूरोप की कविता, कहानी, रंगमंच के साथ साथ चित्रकला में भी देख पाते हैं । इसी सदी में , यथार्थवाद ने भी दर्शन और कलाओं को गहरे प्रभावित किया था । चित्रकला के क्षेत्र में , गुस्ताव कोरबे (Gustave Courbet / 1819 – 1877) सामाजिक-यथार्थवादी चित्रकला के प्रतिनिधि चित्रकार थे । उनका एक चित्र है , 'पत्थर ताड़ने वाले' !

इस चित्र का शीर्षक हमें बीसवीं सदी महान कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ' निराला ' की कविता ' तोड़ती पत्थर ' की याद दिलाती है।  कविता इस प्रकार  है ।

वह तोड़ती पत्‍थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्‍थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्‍यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गयीं,
प्रात: हुई दुपहर :

वह तोड़ती पत्‍थर।



देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार ;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा -
'मैं तोड़ती पत्‍थर।'


गुस्ताव कोरबे के 1849 में बनाए इस चित्र को देखते हुए जो कविता याद आती हैं , उस कविता और चित्र को याद करते हुए , श्रम-संकल्प में लीन एक आदमी की भी याद आती हैं !
दशरथ माँझी (1934 – 2007) बिहार में गया के करीब गहलौर गाँव में एक दलित मजदूर थे । केवल एक हथौड़ा और छेनी लेकर इन्होंने अकेले ही 22 वर्षों की कड़ी मेहनत से , 360 फुट लंबी 30 फुट चौड़ी और 25 फुट ऊँचे पहाड़ को काट के एक सड़क बना डाली ।
निराला की कविता , दशरथ मांझी की हिम्मत और गुस्ताव कोरबे के चित्र  के बीच ही कहीं , सर्वहारा के मुक्तिसंग्राम को एक ठोस आधार देने वाला ' द कन्युनिस्ट  मेनिफेस्टो ' की याद इसलिए भी आती है , क्योंकि यह चित्र कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के इस घोषणापत्र के प्रकाशन (1848) के एक वर्ष बाद ही बनाया गया था , और कहना न होगा कि  गुस्ताव कोरबे की कला इस नई विचारधारा से न केवल प्रभावित थी , बल्कि उन्होंने इस चित्र में  ' सर्वहारा की चित्रकला का स्वरूप क्या होगा ? इस प्रश्न के उत्तर की तलाश भी दिखती है !

गुस्ताव कोरबे का चित्र  ' पत्थर ताड़ने वाले ' को गौर से देखने से हमें मेहनतकश श्रमिकों की दुर्दशा के प्रति , चित्रकार की सजगता स्पष्ट दिखती है । चित्र में दो पत्थर तोड़ते श्रमिकों को हम देख सकते हैं जो पत्थर तोड़ कर , उसे वहाँ से हटा कर एक सड़क बना रहे हैं । दोनों बदहाल श्रमिकों के कपड़े फटे हुए हैं । यहाँ इन दोनों मज़दूरों की उम्र भी गौर करने लायक है । पत्थर तोड़ते आदमी की उम्र इतनी है , कि उसके लिए पत्थर तोड़ने का काम निहायत मज़बूरी ही है । उसी प्रकार पत्थर बटोरने वाले लड़के की उम्र भी इतनी नहीं हैं , कि वह सड़क बनाने का काम कर सके । गुस्ताव कोरबे ने अपने चित्र में इन दोनों की मज़बूरी का अत्यन्त सजीव चित्रण किया है । और यही मज़बूरी ही दोनों श्रमिकों को आपस में जोड़ कर उनके ' वर्ग ' को एक अलग पहचान भी देता हैं , जिसकी उपस्थिति 1848-49 के दौर में यूरोप की चित्रकला में नगण्य थी। 


चित्र में , दोनों मज़दूरों की पृष्ठ भूमि में एक पहाड़ है और चित्र के दाहिने कोने पर नीले आकाश का एक टुकड़ा दिख रहा है । इस प्रकार के संरचना के कारण , दोनों लोग मानो पूरे समाज से कटे , अकेले भी लगते हैं । ' पत्थर तोड़ने वाले ' चित्र में गुस्ताव कोरबे ने इन्हें शारीरिक और आर्थिक रूप से समाज के हाशिये पर दिखाया है साथ ही इस चित्र में गुस्ताव कोरबे तत्कालीन कला के प्रचलित नियमों से बाहर निकलने का भी साहस दिखाते हैं।

तत्कालीन यूरोप की कला में प्रायः मूल विषय को उभारने के लिए , पृष्टभूमि की तुलना में केन्रीय चरित्र पर ज्यादा बारीकी से काम करने का रिवाज़ था  । इससे स्वाभाविक रूप से केंद्रीय चरित्र अलग से नज़र आता हैं । इस चित्र में गुस्ताव कोरबे ने जिस बारीकी से आकाश के टुकड़े को बनाया हैं , उसी बारीकी से लड़के की फटी कमीज़ से झाँकते उसके पीठ के हिस्से को भी दिखाया है । बूढ़े मज़दूर से कुछ दूरी पर जमीन पर रखे उनके भोजन के डब्बे को भी चित्रकार ने समान महत्व का मान कर चित्रण किया हैं , क्योंकि गुस्ताव कोरबे के लिए चित्र में सभी अवयवों की अपनी अहमियत है , जो एक दूसरे के साथ जुड़कर ही पूरे चित्र को सार्थक बनाते हैं।

इस चित्र को बनाने की प्रक्रिया के बारे में गुस्ताव कोरबे ने कहा था कि अपने गाँव में टहलते हुए अचानक ही उन्हें यह दृश्य दिख गया था । पत्थर तोड़ने वालों के साथ साथ पूरा परिवेश उन्हें एक समूचा और सार्थक ' चित्र ' सा  लग रहा था । उन्होंने तुरंत इन दोनों मजदूरों को अगले दिन अपने स्टुडिओ आने को कहा था।

इसमें संदेह नहीं , कि गुस्ताव कोरबे जैसे चित्रकार जब एक दृश्य में एक सार्थक चित्र की सम्भावना देख पाते हैं , तो यह उनकी विचारधारा और विश्वासों के कारण ही संभव होता हैं । चित्रकारों जैसे ही कवियों की कृतियों में इस सरोकार को हम निराला की इस कविता में देख पाते हैं।

गुस्ताव कोरबे का इस  महान चित्र के बारे में बात करते हुए , एक तथ्य हमें विचलित भी करता है । 1945 में यह कालजयी चित्र ,  दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ड्रेस्डेन की बमबारी की चपेट में आकर नष्ट हो गया । चित्रकला के इतिहास की यह निश्चय ही एक अपूरणीय क्षति है ।

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