एक लेखक का पुनर्जन्म : अनिल सिन्हा

मद्रास हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन ने तो मान ही लिया था कि एक लेखक के रूप में अब वह जी नहीं पाएँगे। वह लेखक पेरूमल मुरुगन की मौत की घोषणा सार्वजनिक रूप से कर चुके थे, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कुछ जाति-संगठनों ने उनका जीना हराम कर दिया था। गुंडों की भीड़ ने उनकी किताबें जलाई थीं और उन्हें परिवार को ले कर अपना शहर छोड़ कर भागना पड़ा था। स्थानीय कालेज में प्राध्यापक की उनकी नौकरी भी खतरे में पड़़ गई थी। लेकिन मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाले खंडपीठ ने एक झटके में उन्हें फिर से लेखक के रूप में जिंदा कर दिया। 5 जुलाई 2016 को आया मद्रास हाई कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। इसमें साफ शब्दों में कहा गया है कि लिखने का अधिकार अबाधित है। न्यायालय ने आदेश दिया कि लेखक उसके लिए जी उठे जिसमें वह श्रेष्ठ है : लिखे।


सार्वजनिक रूप से अपने लेखकीय जीवन का अंत होने और अपने संपूर्ण लेखन को वापस लेने की घोषणा कर चुके मुरुगन उठ खड़े हुए और उन्होंने कहा कि वह खुद को जीवित कर सकते हैं।

जाहिर है कि लेखक पर लगी सामाजिक सेंसरशिप को हटाने और अभिव्यक्ति की आजादी देने का फैसला इतना आसान नहीं था। मुख्य न्यायाधीश कौल और न्यायाधीश पुष्पा सत्यनारायण के खंडपीठ को उन सवालों से टकराना पड़ा जो विभिन्न संस्कृतियों को समेट कर चल रही सदियों पुरानी भारतीय सभ्यता में गुँथी सामाजिक जटिलताओं के कारण पैदा हुए हैं। न्यायालय ने नियोग (विवाह से बाहर संतान पैदा करने की प्रथा जिसके जरिए पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर का जन्म हुआ था) पर बेबाक टिप्पणी की है जो आरएसएस जैसे हिंदुत्वादी संगठनों के गले नहीं उतर रहा है। न्यायालय ने शहर में शांति स्थापित करने के नाम पर स्थानीय प्रशासन की ओर से बुलाई गई उस बैठक को अवैध करार दिया जिसमें 12 जनवरी 2015 को मुरुगन से माफीनामा लिखवाया गया था। उसे न्यायाधीश ने कट्टा पंचायत (खाप पंचायत का तमिलनाडु संस्करण) की संज्ञा दी है। न्यायाधीश ने कहा कि जब अभिव्यक्ति की आजादी के साथ कानून-व्यवस्था का सवाल जुड़ गया, तब इस आजादी की रक्षा करना प्रशासन का पहला दायित्व है। उसे लेखक को सुरक्षा देनी चाहिए।

न्यायालय ने कहा है कि उपन्यास ‘मधोरुभगन’ (अर्धनारीश्वर) में, जिसे हिंत्ववादियों ने अपना निशाना बनाया था, मुरुगन ने किसी समुदाय या व्यक्ति के खिलाफ कोई अभद्र टिप्पणी नहीं की है और न ही कोई अश्लील वर्णन किया है। उन्होंने तो बस अपने इलाके में कुछ दशक पहले तक मौजूद नियोग प्रथा के कारण मासूम लोगों की जिंदगी के बर्बाद होने की मार्मिक कहानी कही है। एक समय नियोग औरतों की आजादी देने वाली प्रथा थी और न्यायालय ने अपने फैसले में कहा भी है कि किस तरह इस प्रथा के जरिए कुंती ने विवाह से बाहर पु़त्र प्राप्त किए। न्यायाधीश ने कहा कि विवाह से बाहर के यौन संबंधों को मान्यता देने, यहाँ तक कि उन्हें बढ़ावा देने के उदाहरण हमारे मिथकों और प्राचीन साहित्य में भरे पड़े हैं। प्राचीन साहित्य इस मामले में ज्यादा उदार दिखाई देते हैं। न्यायालय ने इतिहास की उस पुस्तक का हवाला दिया है जो कहती है कि पांडु ने कुंती से कहा कि एक समय था जब नारी बिना पाप लगे अपनी पसंद के पुरुष के साथ सहवास कर सकती थी। उसने एक स्तंभकार की टिप्पणी दोहराई कि क्या इन बातों का जिक्र करने के लिए महाभारत जैसी किताबों पर पाबंदी लगा दी जाए।

मुरुगन ने अपने उपन्यास में पश्चिम तमिलनाडु के कोंगुनाडु इलाके के गरीबी तथा अशिक्षा से पीड़ित औरत-विरोधी समाज में औरतों के मानसिक और शारीरिक शोषण को दमदार तरीके से प्रस्तुत किया है। सन 2010 में प्रकाशित इस उपन्यास को साहित्यकारों और पाठकों के बीच अच्छा प्रतिसाद मिला। उन्हें पुरस्कार भी मिले। लेकिन 2013 में पुस्तक के अँग्रेजी अनुवाद ‘वन पार्ट वूमन’ के प्रकाशित होते ही बावेला मच गया। उनके क्षेत्र के जातिवादी और उनकी खुद की जाति के लोग और आरएसएस से जुड़े संगठन मैदान में कूद पड़े। एक चर्चित उपन्यास के बारे में चार साल तक खामोश रहे लोगों ने मामले को क्यों उठा लिया? उन्हें इसमें राज्य और राष्ट्र के स्तर पर राजनीतिक लाभ की संभावना दिखी। इस मामले को एक ऐसा राजनीतिक रूप दे दिया गया कि कालेज की नौकरी कर रहे प्रोफेसर मुरुगन का जीना मुश्किल हो गया। आखिरकार मुरुगन के उपन्यास में ऐसी कौन-सी बात है जिसे पचा पाना उनके समुदाय के कट्टरपंथियों और आरएसएस जैसे संगठनों के लिए कठिन था? मुरुगन ने दरअसल गैर-मर्द से संतान पैदा करने की प्राचीन नियोग प्रथा के एक स्थानीय संस्करण से आई सामाजिक विकृति और एक दंपति को मिली असह्य यातना को अपने उपन्यास का विषय बनाया था।

‘मधोरुभगन’ एक ऐसे दंपति की कहानी है जो निःसंतान है। दोनों एक दूसरे से अगाध प्रेम करते हैं। लेकिन संतान नहीं होने की वजह से समाज और परिवार की ओर से की जाने वाली टिप्पणियों ने उनके जीवन को दुखों से भर दिया है। उन्हें पल-पल पर तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। संतान पाने के लिए उन्होंने हर तरह के जतन किए और यहाँ तक कि गाँव के पास के जंगल में कठोर यातनाएँ सहीं और पहाड़ी पर बसे देवता के पास प्रार्थना के लिए कठिन रास्ते तय किए। लेकिन उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई। 12 साल निःसंतान रहने के बाद पत्नी के परिवार वालों ने फैसला किया कि वे उस पुरानी परंपरा का सहारा लेंगे जो समुदाय के कई परिवारों को संतान दे चुकी है। इस परंपरा के अनुसार पत्नी को गाँव के समीप पहाड़ी पर स्थित अर्धनारीश्वर (शिव का वह रूप जिसमें उनका आधा शरीर औरत यानी पार्वती का है) के मंदिर में होने वाले एक सलाना उत्सव में भेज दिया, जिसके चैदहवें दिन में निःसंतान औरतों को अनजान मर्द के साथ रात बिताने की अनुमति है। इससे उत्पन्न संतान को सामी पिल्लई (भगवान की दी हुई संतान) कहा जाता है। ये संतानें सामाजिक रूप से स्वीकृत हैं। उपन्यास की नायिका को बिना बताए उसके परिवार वाले इस कर्मकांड के लिए भेज देते हैं। नतीजा यह होता है कि प्रेम से भरी उनकी वैवाहिक जिंदगी बर्बाद हो जाती है।

मुरुगन ने जिस प्रथा के बारे में लिखा है वह उनके क्षेत्र कोंगुचेनाडु में 50 साल पहले तक जारी थी और लेखक ने अपने समुदाय में ऐसी संतानें देखी थीं। काफी शोध के बाद मुरुगन ने यह उपन्यास लिखा है। पराए पुरुष से संबंध बनाने की कथा को समाज और स्त्री के सम्मान से जोड़ कर सांप्रदायिक संगठनों ने उन पर जाति के सम्मान को ठेस पहुँचाने और हिदू परंपरा को नीचा दिखाने का आरोप लगाया। लोगों की भावनाओं को भड़काने में उन्हें सफलता मिली। प्रशासन भी लेखक के साथ खड़ा रहने के बदले हिंदुत्ववादी ताकतों के पक्ष में खड़ा हो गया और कानून-व्यवस्था का हवाला दे कर मुरुगन पर किताब को वापस लेने का दबाब बनाने लगा। मुरुगन उस सामग्री को हटाने पर राजी हो गए जिससे तिरुचेगोडे शहर (जहाँ अर्धनारीश्वर का मंदिर है), अर्धनारीश्वर मंदिर और जाति विशेष के लोगों की पहचान होती है। लेकिन कट्टरपंथी तत्व इससे भी संतुष्ट नहीं हुए। अंत में उनके दबाब से परेशान हो कर मुरुगन ने अपनी किताब वापस लेने और अपने लेखकीय जीवन की मौत की घोषणा कर डाली और सभी के सामने वायदा किया कि वह आगे नहीं लिखेंगे। शांति के नाम पर स्थानीय प्रशासन की ओर से उन्हें दंडित और प्रताड़ित करने के लिए बुलाई गई पंचायत के सामने दिया गया उनका माफीनामा मार्मिक है : ‘पेरूमल मुरुगन लेखक मर चुका है। वह भगवान नहीं है, इसलिए वह खुद को फिर से जीवित नहीं कर पाएगा। उसे पुनर्जन्म में विश्वास नहीं है। वह एक साधारण शिक्षक के रूप में जीवित रहेगा।’

वास्तव में मुरुगन इस इलाके में मौजूद पिछड़ेपन और सामाजिक विकृतियों को उजागर करते रहे हैं। एक छोटे किसान के परिवार से आने वाले पेरूमल शिक्षा पाने वाले घर के पहले व्यक्ति हैं। उनके पिता तिरुचेगोडे शहर के एक सिनमा हाल में सोडावाटर बेचते थे। लेखक ने पिता के साथ यह काम भी किया है।

इस क्षेत्र की सामाजिक स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह स्त्री-भ्रूण हत्या और नवजात बच्चियों को मारने के लिए कुख्यात है। नमक्काल (तिरुचेगोडे जिस जिले का हिस्सा है) और उन चार जिलों सलेम, धर्मपुरी, नमक्काल और मदुराई में है जहां औरतों की आबादी प्रति हजार पुरुष पर 900 से कम है। यहाँ जनसंख्या में औरतों का प्रतिशत पंजाब और हरियाणा की तरह ही है। स्त्री और पुरुष की आबादी में अंतर के कारण आ रही सामाजिक विकृतियों को उन्होंने अपने एक उपन्यास का विषय भी बनाया है।

गहराई से देखने पर हिंदुत्वादियों के विरेाध की जड़ें दिखाई दे जाती हैं। तिरुचेगोडे की परंपरा भले ही अब अस्तित्व में न हो लेकिन नियोग को देवत्व से जोड़ने के विचार को खारिज कर देने से विवाह की ईश्वर के यहाँ तय होने और पति के परमेश्वर होने की अवधारणा खंडित होती है। मुरुगन ने परंपरा को विश्लेषित करने का साहस किया और यह हिंदुत्ववादियों की बर्दाश्त से बाहर था। पराजित लेखक की रक्षा में आए प्रगतिशील संगठनों और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिीज जैसे मानवाधिकार संगठनों ने मामले को यूँ ही नहीं छोड़ा और इसे अदालत में ले गए।

संजय कृष्ण कौल वही न्यायाधीश हैं जिन्होंने मशहूर कलाकार एम एफ हुसैन को अश्लीलता और समुदाय विशेष की भावनाओं को आहत करने के सभी आरोपों से मुक्त कर दिया था और कहा था कि इस बूढ़े कलाकार को अपने देश में होना चाहिए और सरकार इसकी व्यवस्था करे। मुरुगन के बारे में उन्होंने यही आदेश दिया कि उपन्यास एक काल्पनिक रचना है, किसी समुदाय विशेष को इससे जोड़ना गलत है। जज ने कहा कि यह पाठकों की रुचि का सवाल है कि उसे कोई पुस्तक पंसंद है तो उसे पढ़े, नहीं तो फाड़ कर फेंक दे। लेखक को लिखने से नहीं रोका जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि समाज के एक हिस्से को स्वीकार्य नहीं होने वाले सभी लेखन को अश्लील, भ्रष्ट, कामुकतापूर्ण और अनैतिक नहीं कहा जा सकता। न्यायाधीश ने अब तक की विवादास्पद पुस्तकों का हवाला दिया जो साहित्य की धरोहर साबित हुई हैं।

लेकिन क्या फैसले से इस मामले का अंत हो गया है? हरगिज नहीं। कोर्ट का फैसला आते ही आरएसएस के बौद्धिक एस गुरुमूर्ति ने द हिंदू अखबार के साक्षात्कार में कहा कि मामले की ठीक से पैरवी नहीं की गई। मुरुगन का उपन्यास स्थानीय समुदाय के विश्वासों पर हमला करता है और अर्धनारीश्वर की पूजा परंपरा को नीचा दिखाता है। इस किताब पर प्रतिबंध लगाना ही चाहिए। शायद आगे की लड़ाई की तैयारी भी अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ने वालों को करनी पड़े।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें