स्वाधीनता और उसके दुश्मन : शंभुनाथ

स्वाधीनता एक बहुधारदार अवधारणा है। जब भी यह खड़ी हुई, कुछ से स्वाधीनता हासिल हुई, कुछ की स्वाधीनता टाली गई और कुछ की स्वाधीनता छीनी गई। अब तक के अनुभव बताते हैं कि ‘सब की स्वाधीनता’ की धारणा ले कर जो चले वे इतिहास में बड़े अकेले रहे हैं। इसे कभी आदर्शवाद से अधिक नहीं माना गया। आज स्वाधीनता के महादृश्यों के बीच देखा जा सकता है कि स्वाधीनता ‘अभिव्यक्ति की स्वाधीनता’ में सिकुड़ चुकी है और अधिकार वस्तुत: मानवाधिकार या उपभोक्ता के अधिकार में सीमित हो गए हैं। मनुष्य के स्वाधीनता बोध का व्यापक क्षय हुआ है, इस पूरे मामले को ‘स्वाधीनता विडंबना’ कहा जा सकता है।

क्या स्वाधीनता के दुश्मन खुद इसके भीतर बैठे होते हैं? धीरे-धीरे लोकतंत्र की परिभाषा यह होती गई है कि कुछ की स्वाधीनता छीन कर और कुछ की टाल कर जो व्यवस्था कुछ को स्वाधीनता दे, वह  लोकतंत्र है।

सत्रहवीं सदी में मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों की माँग करते हुए स्वाधीनता के दरवाजे पर जो विचारक सबसे पहले पहुँचे थे (थॉमस हाब्स, जॉन लॉक), वे भी मतदान का अधिकार उन्हीं को देना चाहते थे जिनके पास संपत्ति हो। स्त्रियाँ उनके दिमागी नक्शे में नहीं थीं, काले लोग नहीं थे। स्वाधीनता की धारणा के जन्म के साथ ही उसकी विडंबनाएँ सामने आने लगी थीं।

1776 में ‘स्वाधीनता की अमेरिकी घोषणा’ में स्वाधीनता का संबंध समानता से जोड़ा गया। कहा गया कि सभी मनुष्य बराबर हैं। जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों के साथ खुशहाली, सुरक्षा और निजता के अधिकार भी जुड़े थे। कभी नहीं छीने जा सकने वाले प्राकृतिक अधिकारों और सामाजिक समझौते से प्राप्त अधिकारों में फर्क किया गया। यूरोपीय ज्ञानोदय के काल में इस पर बहस विख्यात है। भारतेंदु हरिशचंद्र (1850-84) ने उन्हीं दृश्यों को देख कर ‘कविवचनसुधा’ में कहा था, ‘जिस तरह अमेरिका उपनिवेशित हो कर स्वाधीन हुआ, वैसे ही भारतवर्ष भी स्वाधीनता लाभ कर सकता है।‘ हिंदी में स्वाधीनता पर इस ढंग से बात करने वाले वह पहले व्यक्ति थे।

यूरोपीय ज्ञानोदय ने दो बड़े मूल्य दिए - व्यक्तिगत स्वाधीनता और सार्वभौमता। कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण उन्हीं दो मूल्यों की पैरोडी है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने ‘स्वाधीनता के बारे में’ शीर्षक अपने प्रसिद्ध लेख में कहा था, ‘मानवजाति के विकास के साथ ऐसे सिद्धांत विकसित होंगे, जिनके संबंध में अंतत: कोई मतभेद या संदेह नहीं रह जाएगा। सभी मनुष्य की अच्छाई इससे परखी जाएगी कि उसके पास एक साथ ऐसे कितने शक्तिशाली सत्य हैं जो बिना विरोध के सार्वभौम रूप से मान्य हों।‘ वाशिंगटन आम राय, विश्व व्यापार संगठन, यूरोपीय यूनियन आदि सार्वभौमता की उस धारणा के  चरम प्रतिफलन हैं। सर्वविदित है कि स्वाधीनता पर ग्रंथ लिखने वाले मिल ने ही नहीं, रूसो, हेगेल आदि ने भी दुनिया के देशों में उपनिवेशवाद को सभ्यता, शांति और समृद्धि का वाहक और मानवता का दूत बताया था  - ‘फ्रीडम’ और ‘इंडीपेंडेंस’ दो अलग चीजें थीं। यह यूरोपीयनों का ‘कोलोनियल रोमांस’ था।

वैश्वीकरण के युग में देखा जा सकता है कि मुक्त व्यापार ने दुनिया के देशों में आंतरिक दमन की स्थितियाँ कमजोर कर दी हैं - जैसे साम्यवादी और इस्लामी देशों में। इसने लोगों को विभिन्न किस्म की उपभोक्ता वस्तुओं के एक बड़े संसार से परिचित कराया है। अधिक लोग अभाव के वृत्त से बाहर निकल कर स्वाधीनता और बेहतर जीवन का आनंद ले रहे हैं। कई पुरानी रूढ़ियाँ टूटी हैं। अब खुल कर प्रेम किए जा रहे हैं। फूड के विकल्प बढ़े हैं। पहले से मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है, जिससे लोकतंत्र की भूमि ज्यादा उर्वर हो रही है। नए शहर अस्तित्व में आ रहे हैं। शहरों में मॉल-मल्टीप्लेक्स, उपभोक्ता सामान और तमाम तरह के हब स्वाधीनता के नए रूपक रचते हैं। यह भी यथार्थ है कि इस सुखविभोरता में कृषकों, गाँवों, पुराने पेशों और छोटे व्यापारियों के उजड़ने के शोक से किसी को कष्ट नहीं होता। इस पूरे समय में संवेदना का व्यापक ह्रास हुआ है। गरीबों और उजड़े लोगों को साधारण राहतें भी नहीं मिलतीं, यदि पाँच साल में एक बार चुनाव नहीं आता।

वैश्वीकरण के युग में नव-उपनिवेशन के बावजूद स्वाधीनता की नई उमंग को कई तरह से महिमामंडित किया जाता है। अब लोगों का अपने रोजमर्रा के जीवन पर पहले से ज्यादा नियंत्रण है, ज्यादा व्यक्तिगत स्वाधीनता है। खुले बाजार में सरकारी अधिकारियों पर निर्भरता कम हुई है। आय वृद्धि व्यक्तियों को अधिक शिक्षित, कुशल और जागरूक बनाती है। अब जन आंदोलनों के लिए जगह सिकुड़ गई है। व्यापार, इसमें अधिक से अधिक भागीदारी और पैसा बनाना ही स्वाधीनता की गंगोत्री है। सरकारों की चिंता का केंद्र आर्थिक वृद्धि है, जीडीपी में वृद्धि है। व्यापार बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेगा और बेहतर चीजें मिलेंगी तो स्वाधीनता में भी वृद्धि होगी। अधिकाधिक विदेशी पूँजी निवेश - अधिकाधिक स्वाधीनता। अधिक स्पर्धाशील वेतन और सुविधाएं - अधिक स्वाधीनता। इंटरनेट का अधिक उपयोग - अधिक स्वाधीनता। जितना अधिक पैसा - इंटरनेट, मीडिया और राजनीति में उतना बड़ा जाल और उतनी अधिक स्वाधीनता। पैसा ही स्वाधीनता के केंद्र में है!

आज स्वाधीनता की अवधारणा उन दिनों की धारणा से भिन्न है जब ज्ञान और बुद्धि स्वाधीनता की राहें दिखाते थे। अब ज्ञान की जगह टेक्नोलॉजी है और बुद्धि की जगह वस्तुएँ हैं। स्वाधीनता का अर्थ एक समय राष्ट्रीय स्वाधीनता था जो उपनिवेशित देशों का अपना विशिष्ट अनुभव था। स्वाधीनता की चिंताएँ कुछ खास राष्ट्रीय मूल्यों, जैसे बौद्धिक स्वतंत्रता, सत्याग्रह, आत्मसम्मान, सहिष्णुता, समानता, धर्मनिरपेक्षता, सदाचार, स्वार्थपरता का त्याग, अंहिसा, विश्व शांति आदि से जुड़ी थीं। एक दिन आधी रात को ‘नियति से मुठभेड़’ करते हुए स्वाधीनता इस वादे के साथ आई थी कि हजारों आँखों से आँसू पोंछना है, पर अब इस वादे को पिछवाड़े फेंक कर लक्ष्य होता गया है आँखों में धूल झोंकना--- यह धूल अब रंगीन है।

पश्चिम में स्वाधीनता में खुलेपन के आखिरी दौर में रिचर्ड निक्सन ने कहा था, ‘भौतिक उपलब्धियाँ आवश्यक होने पर भी मानव जाति की गंभीर आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करतीं। मनुष्य की जरूरत है उच्चतर स्वतंत्रताओं को जानने की - मुक्त रूप से वाद-विवाद करने की स्वंतत्रता, लिखने और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता।’ (लंदन में भाषण, 26 नवंबर 1958) आज स्वाधीनता भोग रहे लोगों को वस्तुत: न ‘राष्ट्र’ से मतलब है, न उच्चतर राष्ट्रीय मूल्यों से और न अभिव्यक्ति की स्वाधीनता से ही कोई खास मतलब है। उपभोग के दर्शन से निकली स्वाधीनता की नजरों में ‘राष्ट्र’ सब से बड़ी उपभोक्ता वस्तु है। यदि स्वाधीनता और राष्ट्र के बीच चुनना होगा तो पैसे के पीछे भागता आदमी स्वाधीनता को चुनेगा, क्योंकि ‘राष्ट्र’ का ही नहीं, ‘स्वाधीनता’ का अर्थ भी बदलता जा रहा है।

कहना न होगा कि विश्व व्यापार और उपभोक्तावाद स्वाधीनता की जो धारणाएँ दे रहे हैं, उसी में इसके शत्रु बैठे हैं और अपना काम कर रहे हैं। स्वाधीनता के मुख्य शत्रु दो हैं - व्यक्तिगत स्वाधीनता को चरम मूल्य घोषित करने वाली वि-राष्ट्रीयकरण की ताकतें और सामुदायिक भावना को चरम मूल्य घोषित करने वाली अंध-राष्ट्रीयकरण की ताकतें। वैश्वीकरण का समय व्यक्तिगत स्वाधीनता और सामुदायिक भावना की हिंसक टकराहट के दौर से गुजर रहा है। नतीजतन लंबे ऐतिहासिक संघर्ष से अर्जित राष्ट्रीय मूल्य जर्जर होते जा रहे हैं। देखा जा रहा है कि सरकार, बाजार और राजनीति एकाकार हो गए हैं। राजनेता ‘कैपिटल दास’ हो गए है, अब गरीबों के बीच से कोई बड़ा नेता नहीं हो सकता। छोटे स्वार्थ पूरे करने के लिए भी लोग राजनैतिक शरणापन्नता के लिए बाध्य हैं, अन्यथा आज कोई बड़े उद्देश्य से राजनीति नहीं करता। ‘हमारा आदमी - उनका आदमी’ और ‘हम - वे’ के सैकड़ों हिंसक वृत्त बन गए हैं। इनमें खोती गई है स्वाधीनता। दूसरी तरफ, पैसे से निकली स्वाधीनता में एक दमदार चमक है। यह एक तिलिस्म है या भागता स्वर्णमृग।
वैश्वीकरण का ज्यादा फायदा उठाना संभव हो सकता था, यदि राष्ट्रीय और वामपंथी आंदोलनों की विरासत की रक्षा की जाती, हाशिए की आवाजों को हिंसक चीखों में बदलने से पहले सुन लिया जाता। लेकिन उन आंदोलनों के प्रभाव ने राजनीतिक और सांस्कृतिक संसार में अपना सचेत उत्तराधिकार पैदा नहीं किया।

1927 में गांधी ई वी रामस्वामी नायकर से मिलने गए थे। बातचीत के बीच उन्होंने पूछा, ‘क्या इस वक्त हम सब एक साथ मिल कर हिंदू धर्म में पाई जाने वाली बुराइयों को जड़ से खत्म नहीं कर सकते?’ पेरियार ने जवाब दिया, ‘आप ऐसा नहीं कर सकते। यदि आप ऐसा कर पाने में सफल भी हो गए तो आपके बाद किसी ऐसे ‘महात्मा’ का प्रादुर्भाव होगा जो आपके परिवर्तन को पूरी तरह बदल देगा और इस धर्म को पुन: उसी रूप में ला देगा, जिस रूप में आज हम इसे पाते हैं।’ (सामाजिक क्रांति के दस्तावेज)। पेरियार के दूसरे विचारों में अतिरंजना हो, उनका यह कथन यथार्थ साबित हुआ।

बर्नाड शॉ ने कहा था, ‘स्वाधीनता का अर्थ उत्तरदायित्व है। यही कारण है कि अधिकांश मनुष्य इससे डरते हैं।’ स्वाधीनता जवाबदेह बनाती है। वैश्वीकरण के बाद जनता के प्रति उत्तरदायित्व में ह्रास आया, राष्ट्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों औजार बनते गए। स्वाधीनता का अर्थ होता गया सिर्फ अपनी स्वाधीनता, अपने लिए स्वाधीनता और पैसे से पाई स्वाधीनता।

स्वाधीनता का अर्थविस्तार और अर्थसंकोच ऐतिहासिक स्थितियों पर निर्भर करता है। स्वाधीनता के अर्थसंकोच में एक तरफ बढ़े उपभोक्तावादी रुझान हैं तो दूसरी तरफ समाज में बढ़ी विषमता और असुरक्षा है। असुरक्षा भी दो किस्म की है - बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी और विषमता से पैदा हुई असुरक्षा और आंतकवादी-नस्लवादी हमलों से पैदा हुई असुरक्षा। आज संयोग से कोई अच्छे रोजगार में है या शहरों में कोई  संयोग से जीवित बचा हुआ है।

भौतिक सभ्यता की इतनी ऊँचाई पर आंतकवादी और नस्लवादी हमले बढ़े हैं। न्यू यॉर्क, मुंबई, पेरिस, कैलीफोर्निया, लंदन, इस्तांबुल, ढाका आदि के आंतकवादी हमले ही नजर पर ज्यादा चढ़े हैं, जबकि इनका एक बड़ा सिलसिला है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 में 92 देशों में 11,774 आंतकवादी हमले हुए हैं। सिर्फ इंग्लैंड और वेल्स में 2013-2014 में 47,571 नस्लवादी हमले हुए। अमेरिका, आस्ट्रेलिया और एशियाई देशों में भी नस्लवादी हमलों की संख्या कम नहीं है। भारत में सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ा है। इन स्थितियों में स्वाधीनता का उसके पूरे अर्थ में लेना एक जोखिम है। सुरक्षा पहली जरूरत है और सुरक्षा का अर्थ होता जा रहा है संकीर्ण सामुदायिक राष्ट्रवाद में पनाह। अपने धर्म, जाति और प्रांतीयता की छतरी में जाना। इसका एक रूप है विभिन्न राष्ट्रीयताओं और आदिवासियों की बढ़ती जा रही सांस्कृतिक आत्मसुरक्षा की उग्र भावना। सवाल उठता है, क्या स्वाधीनता और सुरक्षा दोनों एकसाथ संभव हैं?

दुनिया में भय, अविश्वास और असुरक्षा चप्पे-चप्पे पर है। कहा गया है कि ब्रेग्जिट की सफलता के पीछे इंग्लैंड के 44 सालों तक यूरोपीय संघ में रहने का कड़वा अनुभव है, अंग्रेजों को यूरोपीय बने रहने में नुकसान है। इससे बाहरी लोग इंग्लैंड में घुस जाते हैं, वे स्थानीय नौजवानों के रोजगार छीनते हैं। ब्रेग्जिट के बाद इंग्लैंड स्वाधीन हुआ। उदात्त चित्त के मूल्यों और उत्तरदायित्व से छुटकारा ही स्वाधीनता है। अब ग्रेट ब्रिटेन में कुछ भी ग्रेट नहीं रहना है और यूनाइटेड स्टेट्स में कुछ भी यूनाइटेड नहीं रहना है। जिस इंग्लैंड ने सैकड़ों साल तक दूसरे देशों में घुस-घुस कर व्यापार किया और राज किया, उस देश में अब बाहरी लोगों के लिए जगह नहीं है। ब्रेग्जिट सिर्फ ट्रेलर है, पूरी फिल्म नहीं।

अमेरिका में अंध-राष्ट्रवाद के नए उभार ने लिबर्टी-स्टैच्यू को एक प्रहसन बना दिया है। अचानक अपने ही देश में, अपने राज्य में लोग बाहरी हो गए हैं। दुनिया में पुरानी पीढ़ियों के साथ स्वाधीनता के उदार चित्त वाले पुराने मूल्य जा रहे हैं। नई पीढ़ियाँ स्वाधीनता की नई धारणाएँ ले कर आ रही हैं। उन स्वाधीनताओं में प्रमुख है, स्पर्धा में अपने परिजनों, स्वजनों और बंधुओं को रौंदते हुए भी आगे निकलो। अब के अर्जुन ‘गीता’ का उपदेश पाए बिना ही अति सक्रिय हैं। सब से बड़ी विडंबना है कि निर्बुद्धिपरक स्वाधीनता ही लोकप्रिय है, स्वाधीनता और तर्क में कोई संबंध नहीं बचा है। अब सभी को सिर्फ अपने लिए स्वाधीनता चाहिए, ‘दूसरा’ आउटसाइडर है।

स्वाधीनता और तर्क के बीच एक अन्य रास्ते से संबंध खत्म होता है, जब लोभ घेर लेता है। मुक्त बाजार व्यवस्था ने आदमी को लोभी और वेध्य बनाया है। अब भ्रष्टाचार एक धर्मनिरपेक्ष और दलनिरपेक्ष मामला है। यह एक निर्दलीय तूफान है, जिसमें आम लोग घिरे हुए हैं। अब भ्रष्टाचार किसी की राजनीतिक पसंद को प्रभावित नहीं करता, क्योंकि यह एक अदृश्य सार्वभौम जश्न है। यह ऊपर से नीचे तक एक महान आर्थिक कर्मकांड है। माना जाता है कि विदेशी बैंकों में जमा लाखों करोड़ रुपए के काले धन में गरीबों की स्वाधीनता कैद है। एडमंड बर्क ने काफी पहले लिखा था, ‘एक व्यापक रूप से भ्रष्ट नागरिक समाज में स्वाधीनता चिरस्थायी नहीं हो सकती।’ आज जो भी सत्ता में होता है वह अपने अच्छे विचारों, आदर्शों और कार्यों के कारण सत्ता में नहीं होता, बल्कि कारण होते हैं पिछली सत्ता से ऊब और जन-असंतोष। आम तौर पर भ्रष्टाचार अब मतदाता की राजनीतिक पसंद को प्रभावित नहीं करता क्योंकि वह भुलक्कड़ होता है। उस युग में स्वाधीनता का क्षय निश्चित है, जिस युग में भूलने की बीमारी हो या नकारात्मक स्मृतियाँ छाई हों।
लोभ ने इक्कीसवीं सदी में सबसे ज्यादा मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को दबोचा है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें कहाँ चुप रहना है, कहाँ चापलूसी करनी है, कहाँ पक्षपात करना है और कहाँ चीखना है। सत्ता और सुविधाएँ पाने के लिए हरेक को अपनी स्वाधीनता भीतर ही निगल जानी पड़ती है, अब बुद्धिजीवियों को ग्लानि नहीं होती।

स्वाधीनता का बहुसांस्कृतिकता से संबंध सर्वमान्य है। यह आम तौर पर स्वीकार किया गया है कि मानवाधिकार और स्वाधीनता का कोई एकरेखीय वैश्विक रूप नहीं हो सकता। स्वाधीनता का इतिहास भी अलग-अलग देशों में अलग-अलग है। इसलिए स्वाधीनता की कोई भी चिंता सांस्कृतिक विविधता को नजर से ओझल रख कर नहीं हो सकती। विकसित देशों और उभरती हुई अर्थव्यवस्था वाले देश, दोनों जगहों पर बहुसांस्कृतिकता के पक्ष में अक्सर बोला जाता है। लेकिन अपनी ही संस्कृति को श्रेष्ठ और दूसरों की संस्कृति को निम्न समझने की आदत आज भी हर जगह है। यह आदत पश्चिमी देशों में है और पश्चिमी सभ्यता से आक्रांत एशियाई लोगों में भी है। इसलिए पश्चिमी आधुनिकता पहने-ओढ़े देश या व्यक्ति-समूह बहुसांस्कृतिकता को व्यवहार में न ला कर दूसरे समुदायों की स्वाधीनता का अपहरण करते हैं।

स्वाधीनता के संदर्भ में ‘स्थान’ और ‘परंपराओं’ को महत्व देने का अर्थ सदियों से चली आ रही निर्बुद्धिपरकताओं को सींचना नहीं है। वैश्वीकरण से उपजी विषमता और असुरक्षा ने कुछ स्थानों और समुदायों को ‘कछुआ धर्म’ के लिए बाध्य कर दिया, जिससे अर्जित स्वाधीनताओं को गहरा आघात पहुँचा है। हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के बीच कठमुल्लेपन को संगठित होने का अवसर मिला है। धार्मिक कठमुल्लापन स्वाधीनता छीनता है। यह स्त्रियों को सबसे ज्यादा घेरता है। कभी सांप्रदायिकता और कभी आंतकवादी हमलों के रास्ते से यह ऊँचे उदारवादी व्यक्तियों को भी विचलित कर देता है। यदि धार्मिक कठमुल्लेपन के खिलाफ लोगों में आक्रोश पनपता है, तो सत्ता की राजनीति ही उसे दबा कर कठमुल्लेपन को खाद-पानी देती है। स्वाधीनता के प्रमुख दुश्मनों में सत्ता की संकुचित राजनीति और धार्मिक-सामाजिक जड़ता पर इसकी चालाक चुप्पियाँ हैं।

दरअसल ‘वैश्विक’ और ‘स्थानीय’ में अंतर्विरोध नहीं होगा, यदि ‘वैश्विक’ एक अप्रभुत्वपरक, अन-औपनिवेशिक और मानवीय भूमि पर फले-फूले। एक सच्चे वैश्वीकरण को मानवीय स्वाधीनता का अपहरणकर्ता नहीं होना चाहिए जबकि व्यक्ति के महज उपभोक्ता में बदल जाने पर यही घटित होता है। मुक्तिबोध की एक कथा है, ‘पक्षी और दीमक’। पक्षी को एक व्यापारी से दीमक ले कर खाने की लत लग जाती है। उसे हर बार अपना एक पंख नोच कर देना पड़ता है। धीरे-धीरे पक्षी का पंख के अभाव में उड़ना बंद हो गया। अब वह सिर्फ फुदक पाता था, पर उसे दीमक खाने का चस्का लग गया था। उसकी स्वाधीनता खोती गई। एक दिन कुछ सोच कर पक्षी  ने मेहनत से दीमकों का एक ढेर इकट्ठा किया और दीमक बेचने वाले को देख कर कहा, ये अपने दीमक ले कर मेरे पंख वापस कर दो। दीमक के व्यापारी ने कहा, ‘मैं पंख ले कर दीमक बेचता हूं, दीमक ले कर पंख नहीं देता।’ उपभोक्तावाद और जातिवादी, जातीय या धार्मिक कठमुल्लेपन के सौदागरों को आदमी अपनी स्वाधीनता एक-एक कर इसी तरह सौंप रहा है।

महाभारत में कहा गया है, ‘दूसरे के साथ ऐसा कुछ न करो जो अगर तुम्हारे साथ हो तो तुम्हारा नुकसान हो।’ (शांति पर्व, 113.8)। इसका अर्थ है कि स्वाधीनता के स्थानीय इतिहासों के बावजूद इसका एक ऐसा सार्वभौम रूप हो सकता है जो हर किस्म के वर्चस्ववाद से मुक्त हो।

स्वाधीनता का अर्थ कभी भी व्यक्तिवाद, स्वेच्छाचारिता और अराजकतावाद नहीं हो सकता। ये स्वाधीनता के बड़े दुश्मन हैं और ऐसे हैं, जो व्यक्तियों में बड़े मीठे ढंग से प्रवेश करते हैं। इसमें भी संदेह नहीं कि स्वाधीनता और न्याय पर्यायवाची हैं। वैश्वीकरण के युग में सबसे ज्यादा धूमिल न्याय की धारणा हुई है। इसलिए स्वाधीनता और गुलामी की विभाजक रेखा भी अस्पष्ट हो गई है।

कहा जा सकता है कि यदि किसी को स्वाधीनता की जरूरत महसूस होती हो तो सबसे पहले भय और लोभ से बाहर निकलना होगा, बुनी हुई चुप्पियों को तोड़ना होगा और न्याय को अंगीकर करना होगा। क्या आज के जमाने में कोई इसके लिए तैयार होगा? स्वाधीनता के बारे में सोचना आज एक बड़ा कष्टकर विषय है, जबकि गुलामी में बड़ा सुख है। स्वाधीनता का इस तरह के सुख से बड़ा दुश्मन कौन है? स्वाधीनता के बोध के लिए थोड़ा दुख होना चाहिए, क्योंकि दुख ही स्वाधीनता का गर्भाशय है। हर स्वाधीनता किसी न किसी भोगे हुए दुख का शिशु है।

स्वाधीनता को कुछ भीतरी दुश्मनों ने, स्वाधीनता के संबंध में कटे-छँटे सोच ने उसे विडंबनापूर्ण बनाया है। कुछ वैश्वीकरण ने आर्थिक वृद्धि, संचार क्रांति और मानवीय चेहरे के जरिए उसे सुखकर गुलामी का रूप दे दिया है। स्वाधीनता को संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों के सालाना जश्नों में बदल दिया जो कभी महिला दिवस, कभी पर्यावरण दिवस, कभी अफ्रीका दिवस, कभी मातृभाषा दिवस, कभी विश्व मानवता दिवस आदि के रूप में बारी-बारी से आते हैं। मीडिया पूरी बहस को सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता तक सीमित रखने में सफलता पा जाता है। इसलिए भय और लोभ के कंधों पर जा रही स्वाधीनता की अर्थी दिखती नहीं है, अब ‘सत्यमेव जयते’ बोलने वाले कम हैं।

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