स्वाधीनता का मुँह टेढ़ा है : मनोज कुमार पांडेय

"वह पैर छूते हुए, हाथ जोड़ते हुए कुछ इस तरह से अपने रिक्शे में बैठने के लिए अनुरोध कर रहा था जैसे भीख माँग रहा हो। एक आजाद और लोकतांत्रिक देश का श्रम करता हुआ सत्तर साल का नागरिक एक फटेहाल जर्जर भिखारी बूढ़े में कैसे बदल गया?"

इस बार गर्मियों में घर जाते हुए जब इलाहाबाद उतरा तो स्टेशन के बाहर निकलते ही कई रिक्शेवालों ने घेर लिया। यह एक आम दृश्य है। पर उसी भीड़ में एक अस्थिपंजर-सा बूढ़ा था, कम से कम सत्तर साल का यानी लगभग आजाद भारत की उम्र का। वह पैर छूने लगा कि मैं उसके रिक्शे पर बैठूँ। मैं बैठ गया। मैंने उससे बातचीत करने की कोशिश की पर रिक्शा चलाते हुए उसकी साँस इस तरह फूल रही थी कि बातचीत करना उसके लिए संभव नहीं था। उस पर मुझे एक मध्यवर्गीय दया आ रही थी पर उसके लिए मेरी उस दया का कोई मोल नहीं था। मोल था तो उस पैसे का जो मैं थोड़ी देर बाद चुकाने वाला था। सवाल यह है कि उसने श्रम किया, मैंने उस श्रम की कीमत चुकाई, पर बीच में वह दयनीयता कहाँ से आई जो उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गई थी? वह पैर छूते हुए, हाथ जोड़ते हुए कुछ इस तरह से अपने रिक्शे में बैठने के लिए अनुरोध कर रहा था जैसे भीख माँग रहा हो। एक आजाद और लोकतांत्रिक देश का श्रम करता हुआ सत्तर साल का नागरिक एक फटेहाल जर्जर भिखारी बूढ़े में कैसे बदल गया?  सवाल यह है कि उसके लिए इस स्वतंत्रता या स्वाधीनता का क्या मतलब है?

यह एक उदाहरण भर है। इस तरह के दूसरे बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं। तमाम छोटे बड़े शहरों के लेबर चौराहों का दृश्य इससे बहुत अलग नहीं बनता। यह बेकारी के बरक्स रोजी की एक दयनीय तलाश ही है। इलाहाबाद, बनारस, पटना, दिल्ली या कोटा जैसे शहरों में अपने-अपने कमरों में बंद सिविल, इंजीनियरिंग, मेडिकल, कामर्स या तरह-तरह की दूसरी परीक्षाओं की तैयारियाँ करते हुए, दुनियावी यथार्थ से कटे, पर सब कुछ रट्टा मार कर घोंट कर पी जाने को आतुर युवाओं के लिए स्वाधीनता का क्या मतलब है? यह सवाल तब भी उतना ही मानीखेज है जब उनमें से कुछ युवा अपना इच्छित पा जाते हैं। क्या उन्हें अपनी युवावस्था के वे उर्वर साल कभी याद आते होंगे जो उनकी स्वाधीनता को अर्थ दे सकते थे? क्या वे कभी जान पाएँगे कि स्वाधीनता दरअसल अपने लिए एक सही रंग की तलाश है और वही रंग उन्होंने हमेशा के लिए खो दिया है। बहुत पहले धूमिल ने अपनी कविता ‘बीस साल बाद’ मे अपने आप से एक सवाल पूछा था कि ‘बीस साल बाद / मैं अपने आप से एक सवाल करता हूँ / जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है? / और बिना किसी उत्तर के चुपचाप / आगे बढ़ जाता हूँ...’। इसी कविता में आगे यह पंक्तियाँ भी थीं कि... ‘बीस साल बाद और इस शरीर में / सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए / अपने आप से सवाल करता हूँ - क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है / जिन्हें एक पहिया ढोता है / या इसका कोई खास मतलब होता है?’

मेरे देश के करोड़ों लोग इसी आजादी का अपना अर्थ तलाश रहे हैं और उनकी तलाश है कि खत्म होने का नाम नहीं लेती। जब मैं यह लिख रहा हूँ तो मेरे सामने आज सुबह की एक खबर है जिसमें नट जाति के एक शहीद को गाँव के सवर्णों द्वारा गाँव में कहीं भी न दफनाए जाने देने की बात है। और इस सब के बरक्स फेसबुक से ले कर गली-मुहल्लों तक का यह हल्ला कि अब जाति कहाँ बची है। बल्कि अब तो यह क्रम पलट गया है और आज सवर्ण जातियाँ ही उत्पीड़ित हैं। आरक्षण को ले कर हमलावर सवर्णों की संख्या दिन पर दिन बढ़ रही है, पर उसी अनुपात में जाति व्यवस्था पर हमला करने वाले सवर्ण दूर-दूर तक नहीं दिखाई देते। एकदम यही पैटर्न स्त्री और पुरुष को ले कर भी देखा जा सकता है। कुछ उदाहरणों का सहारा ले कर बहुतेरे यह कहते पाए जाते हैं कि अब पुरुष ही उत्पीड़ित हैं। वे आसानी से उन तमाम तथ्यों को भूल जाते हैं कि अभी भी स्त्री यौन आधारित हिंसा और पूर्वाग्रहों की भयानक शिकार है। इस वजह से भी और समाज में भरे तमाम पूर्वाग्रहों की वजह से भी उसके आगे बढ़ने के अवसर बेहद कम हैं। वह इस सदियों पुराने भेदभाव का सामना पल-प्रतिपल करते हुए आगे बढ़ रही है। पर उसके लिए स्वाधीनता का क्या वही मतलब है जो एक पुरुष के लिए है? अभी भी बहुतेरे पुरुष सगर्व यह कहते हुए मिल जाते हैं कि भई, हमने तो उन्हें पूरी आजादी दे रखी है? आप को  क्या लगता है कि सचमुच उनके घरों में आजादी जैसी कोई चीज रहती होगी? आजादी का इस तरह का कोई लेन-देन संभव है क्या?

यहीं पर हम अली सरदार जाफरी की वह मशहूर कविता ‘कौन आजाद हुआ’ भी याद करते चल सकते हैं जिसमें वह कहते हैं कि - ‘कौन आजाद हुआ? / खंजर आजाद है सीने मे उतरने के लिए / वर्दी आजाद है बेगुनाहों पर जुल्मो-सितम के लिए / मौत आजाद है लाशों पर गुजरने के लिए...’ आजाद भारत में जितनी तेजी से आंतरिक उपनिवेश फैले हैं और उनका विरोध करने पर जिस तरह का दमनचक्र चलाया गया है वह उपलब्धि भी आजाद भारत के ही खाते में जानी चाहिए। तमाम देशी-विदेशी कंपनियों की बेलगाम लूट का विरोध करना देशद्रोही और नक्सली होना है। वैसे लोगों के लिए आजादी या स्वाधीनता जैसे शब्दों का मतलब क्या वही है जो उन तमाम कंपनियों में रोजी कमा रहे भारतीय नागरिकों के लिए है? स्वाधीन भारत के लगभग सत्तर सालों में सेना, पुलिस या नौकरशाहों के चरित्र में किस तरह के बदलाव आए हैं? और उनका आजादी के उस महान सपने से क्या कोई रिश्ता नाता बनता है जिसे ले कर लाखों लोग उपनिवेशवाद की लूट के खिलाफ अपने आप को  कुर्बान कर देने के लिए सड़कों पर उतर आए थे? एक छोटा-सा ही सही पर सवाल तो यह भी है कि अगर व्यवस्था में बैठे कुछ लोगों की आँखों में एक सचमुच की आजादी का सपना बसता भी है तो आजाद भारत की समूची व्यवस्था उनके साथ क्या सलूक करती है?

हमारी सरकारों ने हमको विकसित और स्मार्ट बनाने के लिए कमर कस ली है। लेकिन स्पेशल इकोनामिक जोन, स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, बिजनेस हब जैसी योजनाएँ किन लोगों का सपना हैं? गुड़गाँव, नोएडा, गाजियाबाद जैसे शहरों में जिस तरह से अपराध का ग्राफ बढ़ा है, उसके पीछे आजादी की कौन-सी परियोजना काम कर रही है यह समझना कठिन है क्या? शहरों में जिस अनुपात में तरह-तरह के नशेड़ी और भिखमंगे बढ़ रहे हैं उनके लिए आजादी का कोई मतलब कभी बनता था क्या याकि वे अपनी जीन में ही भिखारीपन और नशेड़ीपन ले कर पैदा हुए थे? उन लाखों बच्चों की आँखों में कौन-सी आजादी का सपना लहलहाता होगा जो सड़कों पर तरह तरह के शोषण और हिंसा का शिकार बनते हुए भटकते रहते हैं? कभी उनके लिए भी कोई स्मार्ट सिटी या स्मार्ट स्कूल आदि बनेंगे क्या? यहीं पर सवाल यह भी है कि क्या इरोम शर्मिला और सोनी शोरी जैसी स्त्रियों का भारत माता से कोई रिश्ता बनता है या नहीं? अगर बनता है तो उन आँखों के सपने हममें से ज्यादातर की आँखों से क्यों नहीं जुड़ते? उनके ऊपर की गई हिंसा पर हमारी आँखों में कोई कड़वाहट क्यों नहीं भरती?

किसान स्वाधीन हैं कि वह माटी के मोल अपनी फसलें बेचें या उन्हें खेतों में ही जला दें और भूखों मरें। मजदूर स्वाधीन हैं कि वह बहुत ही कम मजदूरी पर अपना श्रम बेचें या कि भीख माँगें। वैसे जो स्वाधीनता उनको हासिल है उसमें श्रम करने और भीख माँगने में कोई बहुत ज्यादा अंतर बचा भी नहीं है। आदिवासी स्वाधीन हैं कि वह तमाम अंबानियों, अडानियों और वेदांता आदि के जमीन और जंगल खाली कर देने के विनम्र अनुरोध को मान लें और शहरों के स्लम में मर-खप जाएँ। इतना ही नहीं, उन्हें तो आजादी का दूसरा भी विकल्प हासिल है। स्थानीय दलाल गुंडों और पुलिस, पीएसी के लिए अपनी औरतें परोसें अन्यथा नक्सली होने के आरोप में मारे जाएँ। शहर जाने पर स्थानीय प्रशासन और गुंडों को कुछ घूस-वूस दे कर स्लम में रहने की पूरी आजादी है उन्हें। इस बात की भी आजादी है कि वे शहरों के सभी अपराधों को अपने सर-मत्थे लें और जब कभी शहरों पर सौंदर्यीकरण आदि का भूत सवार हो तो दो-चार लाठी खाकर नए स्लम तलाशें।

हिंदी के चर्चित कवि संजय चतुर्वेदी की एक कविता है ‘सभी लोग और बाकी लोग’, जिसमें वह लिखते हैं कि - ‘सभी लोग बराबर हैं / सभी लोग स्वतंत्र हैं / सभी लोग हैं न्याय के हकदार / सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं / बाकी लोग अपने घर जाएँ / सभी लोगों को आजादी है / दिन में, रात में आगे बढ़ने की / ऐश में रहने की / तैश में आने की / सभी लोग रहते हैं सभी जगह / सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं / सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ / सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं / बाकी लोग दुखी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएँ / ये देश सभी लोगों के लिए है / ये दुनिया सभी लोगों के लिए है / हम क्या करें अगर बाकी लोग हैं सभी लोगों से ज्यादा / बाकी लोग अपने घर जाएँ।’ यहाँ मुद्दा यह है कि सभी लोगों की आँखों में तो एक जैसे सपने हैं पर बाकी लोगों के सपने इतने अलग-अलग और एक-दूसरे से अपरिचित क्यों हैं? बाकी लोग अभी भी जाति, धर्म और तरह-तरह के ऊँच नीच और अंधविश्वासों में खोए हैं और सभी लोग इस काम में उनकी अथाह मदद कर रहे हैं।

शिक्षा एक अलग चीज है। आप को  पूरी आजादी है कि सरकारी शिक्षा हासिल करें ठीक उसी तरह जैसे कि सरकार बहादुर को यह आजादी है कि वे सरकारी शिक्षण संस्थानों को भ्रष्ट और नाकारा बनाते जाएँ। यह भी सरकार बहादुर की उदारता है कि अगर आप सरकारी संस्थानों में न पढ़ना चाहें तो कहीं पर लाखों-करोड़ों की डकैती डालें और निजी संस्थानों में ‘क्वालिटी एडुकेशन’ हासिल करें। आप को  आजादी है कि अपनी मातृभाषाओं को भूल जाएँ और अँग्रेजी सीखें। यह भी आजादी है कि अगर अँग्रेजी न सीख पाएँ तो सरकार बहादुर का मुँह भकर-भकर ताकें और नौकरी-चाकरी न मिलने पर शिकायत न करें। पर नहीं, सरकार बहादुर आपके लिए बहुत फिक्रमंद हैं। आपके सामने एक मौका और है। जमीन बेचें या अपने आप को ... बड़े-बड़े नोटों से दो-चार अटैचियाँ भरें और सरकार बहादुर के चरणों में समर्पित कर दें और चाकरी पाएँ। यह भी नहीं कर सकते तो आप किसी काम के नहीं हैं। तब किसी तरह की आजादी का सपना आपकी आँखों का कीचड़ है। तब आप भीख माँगें, अपनी दलाली करें या भूखों मरें। सरकार बहादुर कब तक आपकी चिंता में अपना खून जलाएगी? उसे और भी काम हैं।  

आप को  आजादी है कि आप अपने देश के अल्पसंख्यकों से घृणा करें और बदले में उनकी भी घृणा पाएँ। ऐसे मामलों में कई बार सभी लोग और बाकी लोग का मामला जानबूझकर बदल दिया जाता है। आप को  पूरी आजादी है कि आप इस बदलाव के पीछे की सियासत को न समझें और मरें और मारें। आप को आजादी है कि ऐसे समय में अपना भूखा-नंगा होना भूल जाएँ। आजादी है कि इस बहाने अपनी दीनता और कुंठा बाहर निकाल फेकें बल्कि उसे चाकू बनाकर अपने पड़ोसी के भीतर उतार दें। आप निश्चिंत रहें कि आप का बाल बाँका नहीं होगा और अगर हो भी गया तो वैसे ही कौन से आपके बाल सुरक्षित हैं। अगर आप अल्पसंख्यक हैं तो आप को  पूरी आजादी है कि मारे जाएँ और अपने ही और भीतर घुसते चले जाएँ। बाकी इस बात की तो सभी को पूरी आजादी है कि अपने-अपने बाबाओं और बाबियों की चरण रज धो-धोके पिएँ। वे कुछ भी करें उन्हें विरोधियों की साजिश मानें। उन्हें सर पर बैठाओ भले ही वे तुम्हारे ऊपर मल-मूत्र का ही विसर्जन करें। इसे प्रसाद मानने की पूरी आजादी है आप को ।

आप को  पूरी आजादी है कि बरगद में सूती धागा बाँधें। पीपल पर के पहलवान को लँगोट चढ़ाएँ। भूतों से मुक्ति पाने के लिए ओझाओं और मजारों के चक्कर काटें। पूरी आजादी है कि आप मानें कि यह दुनिया शेषनाग के फन पर टिकी है और जन्नत में हूरें या अप्सराएँ मिलती हैं। आप देखेंगे कि आपकी व्यवस्था कितनी उदार है कि ऐसा करने से आप को  एक बार भी नहीं रोकेगी। उसे आपकी आजादी का पूरा पूरा खयाल है। आप को आजादी है हजारों साल पहले के समय में वापस लौटने की। आप को  पूरी आजादी है एक दिशाहीन बर्बर पागल जानवर में बदल जाने की, बस सरकार बहादुर की इतनी ही गुजारिश है कि आप उसके काम आते रहें। आप को  पूरी आजादी है कि कोई कलबुर्गी, कोई पानसरे अगर आपके एक घिनौने मनुष्य होने पर सवाल उठाए तो सरकार बहादुर की तरफ से उसे फाड़ खाएँ। आप को  पूरी आजादी है बल्कि सरकार बहादुर का पूरा समर्थन है इस मसले पर। और आप जानते हैं कि इस आजादी का आप पूरा फायदा उठाते हैं।

आप भाग्यशाली हैं कि आप के पास अपना कहने के लिए एक देश है। आप और भाग्यशाली हैं कि आप को  भारत जैसा देश मिला है। इतना खूबसूरत, इतना विविधता से भरा, इतनी भाषाएँ, इतनी संस्कृतियाँ। आप को आजादी है कि आप देश से प्रेम करें और इसकी विविधता से घृणा। आप को  आजादी है कि अपने धर्म से प्रेम और संस्कृति से प्रेम करें और पड़ोसी की धर्म और संस्कृति पर लानत भेजें। इस मसले पर भी आप को  सरकार बहादुर की तरफ से पूरी आजादी है। आप को  आजादी है कि आप सेना में भर्ती हो कर देश के भीतर या बाहर के अपने जैसे लोगों से लड़ते हुए जान दे दें। आप को  यह भी आजादी है कि सेना में भर्ती के लिए आयोजित होने वाली दौड़ में उत्तीर्ण होने के लिए किसी उत्तेजक दवा का सहारा ले कर दौड़ते-डौड़ते अपनी जान दे दें। आप को किसी भी तरह से मरने की पूरी आजादी है। सीमा पर मरें या देश के भीतर मरें। अपने गले में फाँसी का फंदा डाल कर मरें या सल्फास खाकर मरें। पड़ोसी के हाथों मरें या किसी हत्यारे के हाथों। कुछ भी न हो तो भूख से ही मर जाएँ। इतनी असीमित आजादी आप को  इतिहास में पहले कभी हासिल थी क्या?

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