जहाँ भारत से गाँधी की मुलाकात हुई : कुमार प्रशांत

कुमार प्रशांत
वैसे तो इतिहास की हर घटना की शताब्दी आती है और उसे सौ साल पुराना बना कर चली जाती है। हम भी इतिहास को बीते समय और गुजरे लोगों का दस्तावेज भर मानते हैं। लेकिन इतिहास बीतता नहीं है, नए रूप और संदर्भ में बार-बार लौटता है और हमें मजबूर करता है कि हम अपनी आँखें खोलें और अपने परिवेश को पहचानें। इतिहास के कुछ पन्ने ऐसे होते हैं कि वे जब भी आपको या आप उनको छूते-खोलते हैं तो आपको कुछ नया बना कर जाते हैं। इसे पारस-स्पर्श कहते हैं - इतिहास का पारस-स्पर्श।
 
चंपारण का गाँधी-अध्याय ऐसा ही पारस है। इस पारस के स्पर्श से ही गाँधी को वह मिला; और वे वह बने जिसकी खोज थी उन्हें याकि इतिहास ने जिसके लिए उन्हें गढ़ा था।और वह गाँधी का स्पर्श ही था कि जिसने अहिल्या जैसे पाषाणवत् चंपारण को धधकता शोला बना दिया था। यह सब क्या था और कैसे हुआ था? 
 
15 अप्रैल 1917 को राजकुमार शुक्ल जैसे एक अनाम-से आदमी के साथ मोहनदास करमचंद गाँधी नाम का लगभग अनाम-सा आदमी चंपारण आया था। मोहनदास इससे पहले कभी बिहार आए नहीं थे। बिहार तो क्या, देश ही वर्षों बाद लौटे थे। चंपारण का नाम भी नहीं सुना था और नील की खेती के बारे में न के बराबर ही जानते थे। कानूनी पढ़ाई के लिए इंग्लैंड से जो विदेशयात्रा शुरू हुई थी वही उन्हें दक्षिण अफ्रीका ले गई और फिर वहीं अवस्थित भी कर आई थी - सपरिवार। सब कुछ ठीकठाक ही चल रहा था। वकालत भी जम गई थी कि मॉरित्सबर्ग स्टेशन पर उस मूढ़मति टिकटचेकर ने उन्हें डिब्बे से उतार फेंकने का कारनामा कर डाला। कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि उस टिकटचेकर को जरा भी इल्म होता कि इस काले को डब्बे से उठा फेंकने से गोरों के साम्राज्य की नींव ही उखड़ जाएगी तो वह ऐसा कभी न करता।  लेकिन उसने बैरिस्टर एमकेगाँधी को भीतर से मोहनदास करमचंद गाँधी कर दिया जो शनैः-शनैः चोले उतारता-उतारता कब महात्मा गाँधीऔर फिर बापू बन गया, इसकी खोज में आज भी इतिहास भटक ही रहा है ।  इसलिए यह याद रखने जैसा तथ्य है कि गाँधीजी जब चंपारण आते हैं तब तक वे एकदम परिपक्व सत्याग्रही बन चुके होते हैं।
 
दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का हथियार उन्हें मिला, जिसे धारदार बना कर उन्होंने रंग व जातीय भेद के खिलाफ इस्तेमाल भी किया, अपने जीवन में भी और जीवन की दिशा में भी कितने फेर-फार किए; परिवार को अपनी तरह से जीने की दिशा में ढाला; अपने आश्रम बनाए; उसके अनुरूप जीने की पद्धतियाँ विकसित कीं; अपनी लड़ाई के पक्ष में जनमत बनाने के लिए इंग्लैंड तक की यात्रा की और विदेशी सरकार से ले कर विदेशी अखबार और विदेशी सामाज के लोगों तक को साथ लेने की कला विकसित की; जेनरल स्मट्स के साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत का वह नया रिश्ता बनाया जिसमें नागरिक और उसकी सरकार एक हैसियत पर आ सकती है। चंपारण आने से पहले गाँधी हिंसक युद्धभूमि में उतर चुके हैं। जूलू विद्रोह के दौरान सार्जेंट मेजर एम केगाँधी के नाम की पट्टी लगा कर, भारतीयों की टुकड़ी के कमांडर बन कर, वे युद्ध के मैदान में, गोलियों के बीच भागते-दौड़ते घायल सिपाहियों की तीमारदारी कर चुके हैं।'हिंदस्वराज्य' नाम की कालजयी पुस्तिका लिख चुके हैं। दक्षिण अफ्रीका का अपना संघर्ष जीत कर भारत आए तो रही-सही कसर गुरु गोखले ने पूरी कर दी। वचन-बद्ध गाँधी पूरे साल भर तक 'आँख खुली : मुँह बंद' कर सारा भारत घूमते रहे। देश देखा, लोग देखे, प्रकृति देखी और देखा हर मान-अपमान को सह कर जीने का भारतीय स्वभाव। इसी भारत-दर्शन के क्रम में वे यह पहचान सके कि सैकड़ों साल की गुलामी अब अवस्था नहीं, मन:स्थिति में बदल चुकी है।
 
रामचंद्र शुक्ल उन्हें नील किसानों की दुरवस्था दिखाने के लिए चंपारण लाए थे, गाँधी ने यहाँ आकर वह सब देखा जो गुलामी की बीमारी के विषाणु हैं। यह जानना बड़ा मजेदार भी है औरआँखें खोलने वाला भी कि वे यहाँ आकर अँग्रेजों से निलहों से कोई लड़ाई लड़ते ही नहीं हैं, वे लड़ाई शुरू करते हैं गुलामी की मानसिकता से। वे रात-दिन गुलाम भारतीयों को उनकी गुलामी का एहसास कराते रहते हैं। बिहार के पहले दर्जे के वकीलों की फौज आ जुटी है - बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, रामनवमी प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, धरणीधर बाबू आदि सभी गाँधी से सुरक्षित दूरी रख कर, गाँधी के करीब आते हैं। ये तब के वक्त में दस हजार रुपए तक की फीस वसूलने वाले वकील हैं।गाँधी ऐसी वकालत और ऐसी कमाई का संसार छोड़ कर ही आए हैं तो इनकी चमक-दमक से अप्रभावित, इन्हें समझाते हैं कि लड़ाई न अधूरी होती है और न अधूरे मन से लड़ी जाती है। प्रोफेसर कृपलानी भी हैं आसपास, लेकिन वे गाँधी को ताड़ने में ही अधिक लगे हैं।
 
गाँधी अपने मतलब के लोगों को गुजरात, महाराष्ट्र आदि से बुलाते हैं और सफाई से रहना, पढ़ना, खाना बनाना आदि शुरू करवाते हैं। सबसे पहले सबकी रसोई एक साथ, एक ही जगह बने, वे इसका आग्रह करते हैं। हर बड़ा वकील अपने साथ सेवक, रसोइया ले कर आया होता है।गाँधी धीरे से इसे अनावश्यक बताते हैं और समझाते हैं कि सब मिल कर एक-दूसरे की मदद से वे सारे काम कर ले सकते हैं जिनके लिए हम इन पर आश्रित हैं। वे कहते ही नहीं हैं बल्कि खुद ही करने भी लगते हैं। उस दिन तो हद ही हो जाती है जिस दिन दीनबंधु सीएफ एंड्रूज को (जो तब दीनबंधु नहीं कहलाते थे) मोतिहारी से बाहर जाना है और उनके लिए खाना बनाने वाला कोई नहीं है। जैसे-तैसे रोटी और उबले आलू का खाना बनता है और एंड्रूज खाने बैठते हैं तभी गाँधीजी उन्हें देखने आ जाते हैं और यह देख कर पानी-पानी हो जाते हैं कि एंड्रूज वह एकदम कच्ची रोटी खारहे हैं जो उनकी थाली में धर दी गई है।गाँधी लोगों पर नाराज होते हैं और फिर खुद ही रोटियाँ बनाने बैठ जाते हैं।वे रोटियाँ बेलते हैं, करीने से उन्हें सेंकते हैं और कितने की मान-दुलार से एंड्रूज की थाली में डालते हैं । बस, उस दिन से रसोई भी और नौकर भी एक हो गए। इन सबमें कहीं भी न अंग्रेज आते हैं और न उनसे लड़ाई आती है।
 
चम्पारन में महात्मा गांधी
लेकिन गाँधी के चंपारण पहुँचने से पहले ही उनकी कीर्ति वहाँ पहुँच जाती है। जनमानस में बनने वाली छवि अहिंसक लड़ाई का बड़ा प्रभावी हथियार होती है। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी ने क्या किया,इसे न जानने वाले भी यह जान गए हैं कि यह चमत्कारी आदमी है। रास्ते भर किसान ही नहीं, सरकारी अधिकारी भी गाँधी को देखने आते रहते हैं। जितने लोग आते जाते हैं, बातें उतने ही रंग की फैलती जाती हैँ। अंग्रेज अधिकारी व प्रशासन हैरान है कि यह आदमी करना क्या चाहता है; और यह जो करना चाहता है वह इसे करने दिया जाए तो पता नहीं यह क्या-क्या करने लग जाएगा । दक्षिण अफ्रीका में इनके आका इस आदमी के जाल में इसी तरह जा फँसे थे, वह कहानी गाँधी के लोगों से ज्यादा अच्छी तरह सरकारी लोगों को पता है।
 
15 अप्रैल को गाँधी मोतिहारी पहुँचते हैं और बाबू गोरख प्रसाद के घर पर उन्हें ठहराया गया है। अंग्रेजों के बात-व्यवहार का गाँधी को दक्षिण अफ्रीका से अनुभव है। इसलिए वे अभी-के-अभी गिरफ्तारी की संभावना मान कर तैयार हैं। उसी आधार पर सामान की गठरी बनी हुई है। सब जानना चाहते हैं कि गाँधी कल से सत्याग्रह कैसे शुरू करेंगे।गाँधी एकदम ठंडे स्वर में कहते हैं : कल मैं जसवलपट्टी गाँव जाऊँगा । सब एक-दूसरे से पूछते हैं : क्यों, वहाँ क्यों ? पता चलता है कि वहाँ के एक प्रतिष्ठित गृहस्थ पर अत्याचार की ताजा खबर आई है । सब बड़े लोग कुछ परेशान हो जाते हैं- अत्याचार कहाँ नहीं है कि आप जसवलपट्टी जा रहे हैं। मोतिहारी मुख्य शहर है। यहाँ से आपको प्रचार मिलेगा न कि जसवलपट्टी से।
 
रात बीतती है। सुबह गाँधी जसवलपट्टी जाने के लिए तैयार हैं। धरणीधर बाबू और रामनवमी बाबू साथ निकलते हैं। सवारी है हाथी। जलता हुआ सूरज सिर पर है और गर्म हवा साँस खींच रही है।गाँधी ने कभी हाथी की सवारी की नहीं है और वह भी तीन आदमी एक साथ। लगभग टँगी हुई हालत में सफर शुरू। औरगाँधी की बात भी शुरू हुई। वे जब से बिहार आए थे और मोतिहारी आए थे, यहाँ की महिलाओं की दशा उन्हें मथ रही थी। इसलिए इसकी ही चर्चा उन्होंने निकाली और कहा यह कि यह तो हमारी महिलाओं को मार ही देगा।अंग्रेज अधिकारी भी यही समझ रहे थे कि यह आदमी पता नहीं कब, कहाँऔर कैसे हमें मार ही देगा और इसलिए बगैर कोई वक्त खोए वे ही आगे बढ़ कर गाँधी से लड़ाई मोल लेते हैं। रास्ते में हाथी से उतर कर बैलगाड़ी,बैलगाड़ी से उतर कर इक्का और इक्के से उतर कर टमटम की यात्रा करवाता है प्रशासन और फिर जिला छोड़ कर चले जाने का फरमान थमा देता है। 'मुझे इसका अंदेशा तो था ही। ' कह कर गाँधी चंपारण के जिलाधिकारी का आदेशपत्र लेते हैं। लिखा है,'आपसे अशांति का खतरा है। 'गाँधी यह आदेश मानने से सीधे ही इंकार कर देते हैं। वे अपने साथियों में पहले से बना कर लाया वह हिदायतनामा बाँट देते हैं जिसमें लिखा है कि यदि उनकी गिरफ्तारी होती है तो किसे क्या करना है। यह सब तो अश्रुतपूर्व था।
 
अगले दिन, अगला नजारा कचहरी में खुला। बेतार से बात सारे चंपारण में फैल गई थी कि अब गाँधीजी का चमत्कार होगा। कचहरी में किसानों का रेला उमड़ पड़ा था। सरकारी वकील पूरी तैयारी से आया था कि इस विदेशपलट वकील को धूल चटा देगा। जज ने पूछा कि गाँधी साहब, आपका वकील कौन है, तो गाँधीजी ने जवाब दिया - कोई भी नहीं । फिर? गाँधी बोले - मैंने जिलाधिकारी के नोटिस का जवाब भेज दिया है । अदालत में सन्नाटा खिंच गया । जज बोला : वह जवाब अदालत में पहुँचा नहीं है । गाँधीजी ने अपने जवाब का कागज निकाला और पढ़ना शुरू कर दिया। कचहरी में इतना सन्नाटा था कि गाँधीजी के हाथ की सरसरहाट तक सुनाई दे रही थी।
 
और उन्होंने कहा कि अपने देश में कहीं भी आने-जाने और काम करने की आजादी पर वे किसी की, कैसी भी बंदिश कबूल नहीं करेंगे। हाँ, जिलाधिकारी के ऐसे आदेश को न मानने का अपराध मैं स्वीकार करता हूँऔर उसके लिए सजा की माँग भी करता हूं। गाँधीजी का लिखा जवाब पूरा होता है और इस खेमे में और उस खेमे में सारा कुछ उलट-पुलट जाता है। न्यायालय ने ऐसा अपराधी नहीं देखा था जो बचने की कोशिश ही नहीं करता है। देशी-विदेशी सारे वकीलसाहबान के लिए यह हैरतअंगेज बात बन जाती है कि यह आदमी अपने लिए सजा की माँग कर रहा है जबकि कानूनी आधार पर सजा का कोई मामला बनता ही नहीं है। सरकार, प्रशासन सभी अपने ही बुने जाल में उलझते जाते हैं। जज कहता है कि जमानत ले लो, तो जवाब मिलता है : मेरे पास जमानत भरने के पैसे नहीं हैं । जज कहता है कि बस इतना कहो कि तुम जिला छोड़ दोगे और फिर यहाँ नहीं आओगे तो हम मुकदमा बंद करते हैं; गाँधीजी कहते हैं : यह कैसे हो सकता है।आपने जेल दी तो उससे छूटने के बाद मैं स्थायी रूप से यही चंपारण में अपना घर बना लूँगा। यह सब चला और फिर कहीं दिल्ली से निर्देश आता है कि इस  आदमी से उलझो मत, मामले को आगे मत बढ़ाओऔरगाँधी को अपना काम करने दो। बस, यही सरकारी आदेश वह कुंजी बन जाता है जिससे सत्याग्रह का ताला खुलता है। ताला क्या खुलता है, सारे वकीलान, प्रोफेसर साहबान, युवाजन, किसान-मजदूर सब खिंचते चले आते हैं और जितने करीब आते हैं, उतने ही बदलते जाते हैं।गाँधी सबसे वादा भी ले लेते हैं कि जेल जाने की घड़ी आएगी तो कोई पीछे नहीं हटेगा। इन नामी वकीलों ने अब तक दूसरों को जेल भिजवाने का या जेल जाने से बचाने का ही काम किया था, खुद जेल जाने की तो कल्पना भी नहीं की थी। जेल जाना बदनामी की बात भी थी। यह आदमी कह रहा था कि सच की लड़ाई में जेल जाना सम्मान की ही बात नहीं है बल्कि जरूरी बात भी है, और जब वह यह कह रहा है तो सभी जानते हैं कि यह खुद दक्षिण अफ्रीका की जेलों में रह कर  और जीत कर आया है।
 
किसानों से बयान दर्ज करवाने का काम किसी युद्ध की तैयारी जैसा चलता है। देश भर से आए विभिन्न भाषाओं के लोगबिहार के लोगों की मदद से बयान दर्ज करने का काम करते हैं।गाँधी जैसे एक वकालतखाना ही चला रहे होते हैं। तथ्यों का सच्चा और संपूर्ण आकलन कैसे एक अकाट्य हथियार बन जाता है, 'डेटा कलेक्शन' की आज की पेशेवर दुनिया में चंपारण इसका पदार्थ-पाठ बन सकता है।गाँधी यह भी पहचान जाते हैं कि नील की खेती के पीछे अंग्रेजों की दमनकारी नीतियाँ तो हैं ही, नकदी फसल का किसानों का आकर्षण भी है। इस लोभ में वे अपनी कृषि-प्रकृति के खिलाफ जा कर काम करने को तैयार होते हैं।आज खेती का सबसे बड़ा संकट यह है कि हमने इसे प्रकृति के साथ रासायनिक युद्ध में बदल दिया है जबकि खेती है तो शरीर-विज्ञान। चंपारण सत्याग्रह का यह पहलू बहुत उभरा नहीं, क्योंकि मैदान में लड़ाई कुछ और ही चल रही थी। लेकिन चंपारण के काम की दिशा का जब विस्तार होता है औरगाँधी का सत्याग्रह पूरी तरह खिलता है तब गाँधी इन सारे सवालों को छूते हैं। आज हमारी खेती-किसानी जब लाचारी औरआत्महत्या का दूसरा नाम बन गई है, हमें चंपारण सत्याग्रह की इस दिशा का ध्यान करना चाहिए। गाँधीऔर चंपारण दोनों ही आज के हिंदुस्तान की दशा सुधारने और दिशा दिखाने का काम एक साथ कर सकते हैं। शर्त इतनी ही है कि हम दशा सुधारने और दिशा खोजने के बारे में ईमानदार तो हों।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें